Saturday, January 23, 2010

इतिहास- प्राचीन इतिहासः डॉ॰ आर के शुक्ला

'प्राचीन भारत' को प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। इसमें प्रारम्भिक काल, उत्तर वैदिक काल, धार्मिक क्रान्ति और मगध, मौर्य साम्राज्य, मोर्योत्तर युग, गुप्तकाल और हर्षवर्धन नामक सात अध्याय हैं। इनमें प्रारम्भ से लेकर हर्षवर्धन तक के भारतीय सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक परिदृश्य को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

पुस्तक की रचना सरल भाषा में की गई है, ताकि पाठकगण विषय को आसानी से समझ सकें। इसके अध्ययन से छात्रों में भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रति दृढ़ निष्ठा का विकास होगा।

लेखक- डॉ॰ आर॰ के॰ शुक्ला, प्राध्यापक (गणित), स्वामी विवेकानंद राजकीय कॉलेज, घुमारवीं, बिलासपुर

पुस्तक का मुद्रित मूल्य- रु 225

इतिहास व संस्कृति- कहलूर-बिलासपुरः डॉ॰ आर के शुक्ला

'कहलूर-बिलासपुर' में हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर का ऐतिहासिक, भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिदृश्य बारह अध्यायों में प्रस्तुत किया गया है। प्रमाणिक ग्रन्थों एवं ठोस सामग्री के आधार पर यह पाया गया कि कहलूर-बिलासपुर रियासत पर 45 चन्देल वंशीय राजाओं ने शासन किया। स्वतंत्रता के पश्चात यह क्षेत्र भारतीय संघ का 'ग' श्रेणी राज्य बना और फिर इसे हिमाचल प्रदेश का जिला बनाया गया। भाखड़ा बाँध, कन्दरौर पुल, देवली मतस्य केन्द्र, विक्टोरिया क्रॉस भण्डारी राम, परमवीर चक्र संजय कुमार ने इसे गौरवान्वित किया है। बिलासपुर का बारह परगनों में विभाजन एक शताब्दी से अधिक पुराना है।

पुस्तक की रचना सरल भाषा में की गई है ताकि पाठकगण विषय को आसानी से समझ सकें। इसके अध्ययन से छात्रों को कहलूर-बिलासपुर के इतिहास एवं संस्कृति की अधिक जानकारी उपलब्ध होगी और उनमें भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा की भावना बढ़ेगी।

लेखक- डॉ॰ आर॰ के॰ शुक्ला, प्राध्यापक (गणित), स्वामी विवेकानंद राजकीय कॉलेज, घुमारवीं, बिलासपुर

पुस्तक का मुद्रित मूल्य- रु 360

कविता संग्रह- साया- रंजना भाटिया 'रंजू'

युगों पहले जिस दिन क्रौंच पक्षी के वध के बाद वाल्मिकी के मन में करुणा उपजी थी, तो उनके मन की संवेदनायें छंदों के रूप में उनकी जुबान पर आयी, और संभवतः मानवी सभ्यता की पहली कविता नें जन्म लिया.तब से लेकर आज तक यह बात शाश्वत सी है, कि कविता में करुणा का भाव स्थाई है. अगर किसी भी रस में बनी हुई कविता होगी तो भी उसके अंतरंग में कहीं कोई भावुकता का या करुणा का अंश ज़रूर होगा.

रंजना (रंजू) भाटिया की काव्य रचनायें "साया" में कविमन नें भी यही मानस व्यक्त किया है,कहीं ज़ाहिर तो कहीं संकेतों के माध्यम से. इस काव्यसंग्रह "साया" का मूल तत्व है -

ज़िंदगी एक साया ही तो है,
कभी छांव तो कभी धूप ...


मुझे जब इस कविता के पुष्पगुच्छ को समीक्षा हेतु भेजा गया, तो मुझे मेरे एहसासात की सीमा का पता नहीं था. मगर जैसे जैसे मैं पन्ने पलटता गया, अलग अलग रंगों की छटा लिये कविताओं की संवेदनशीलता से रु-ब-रु होने लगा, और एक पुरुष होने की वास्तविकता का और उन भावनाओं की गहराई का परीमापन करने की अपनी योग्यता, सामर्थ्य के कमी का अहसास हुआ.

जाहिर सी बात है. यह सन्मान, ये खुसूसियत मात्र एक नारी के नाज़ुक मन की गहराई को जाता है.मीठी मीठी मंद सी बयार लिये कोमल संवेदनायें, समर्पण युक्त प्रेम, दबी दबी सी टीस भरी खामोशी की अभिव्यक्ति, स्वप्नों की दुनिया की मासूमियत , इन सभी पहलूओं पर मात्र एक नारी हृदय का ही अधिपत्य हो सकता है. प्रस्तुत कविता की शृंखला ' साया 'में इन सभी विशेषताओं का बाहुल्य नज़र आता है.

कविता हो या शायरी हो, कभी उन्मुक्त बहर में तो कभी गेय बन्दिश में, कभी दार्शनिकता के खुले उत्तुंग आसमान में तो कभी पाठ्यपुस्तक की शैली हो, सभी विभिन्न रंगों में चित्रित यह भावचित्र या कलाकृति एक ही पुस्तक में सभी बातें कह जाती है, अलग अलग अंदाज़ में, जुदा जुदा पृष्ठभूमि में. मीरा का समर्पण है,त्याग की भावना है और साथ ही कमाल की हद तक मीर की अदबी रवानी और रिवायत भी.

आगे एक जगह फ़िर चौंक पडा़, कि सिर्फ़ स्त्री मन का ही स्वर नहीं है, मगर पुरुष के दिल के भीतर भी झांक कर, उसके नज़रीये से भी भाव उत्पत्ति की गई है . ये साबित करती है मानव संबंधों की विवेचना पर कवियत्री की पकड जबरदस्त है. साथ ही में विषयवस्तु पर उचित नियंत्रण और परिपक्वता भी दर्शाती है.

रन्जु जी के ब्लोग पर जा कर हम मूल तत्व की पुष्टि भी कर लेतें है, जब एक जगह हम राधा कृष्ण का मधुर चित्र देखते है, और शीर्षक में लिखा हुआ पाते हैं- मेरा पहला प्यार !!!

उनके प्रस्तुत गीत संग्रह के प्रस्तावना "अपनी बात" में वे और मुखर हो ये लिखती हैं कि:

"जीवन खुद ही एक गीत है, गज़ल है, नज़्म है. बस उसको रूह से महसूस करने की ज़रूरत है. उसके हर पहलु को नये ढंग से छू लेने की ज़रूरत है."

सो ये संग्रह उनके सपनों में आते, उमडते भावों की ही तो अभिव्यक्ति है, जीवन के अनुभव, संघर्ष, इच्छाओं और शब्दों की अभिव्यक्ति है.

मेरा भी यह मानना है, कि हर कवि या कवियत्री की कविता उसके दिल का आईना होती है. या यूं कहें कि कविता के शैली से, या बोलों के चयन से अधिक, कविता के भावों से हम कविहृदय के नज़दीक जा सकते है, और तभी हम साक्षात्कार कर पाते हैं सृजन के उस प्रवाह का, या उसमें छिपी हुई तृष्णा के की सांद्रता का. तब जा कर कवि और कविता का पाठक से एकाकार हो रसोत्पत्ति होती है, और इस परकाया प्रवेश जैसे क्रिया से आनंद उत्सर्ग होता है. व्यक्ति से अभिव्यक्ति का ये रूपांतरण या Personification ही कविता है.

अब ज़रा कुछ बानगी के तौर पर टटोलें इस भावनाओं के पिटारे को:

संवेदना-

दिल के रागों नें,
थमी हुई श्वासों ने,
जगा दी है एक संवेदना......


अजब दस्तूर-

ज़िन्दगी हमने क्या क्या न देखा,
सच को मौत के गले मिलते देखा


जाने किस अनजान डगर से
पथिक बन तुम चले आये...

काश मैं होती धरती पर बस उतनी
जिसके ऊपर सिर्फ़ आकाश बन तुम चल पाते....


ऐसा नहीं है कि यह कविता संग्रह संपूर्ण रूप से मुकम्मल है, या इसमें कोई कमी नहीं है.

जैसा कि इस तरह के प्रथम प्रस्तुतिकरण में अमूमन होता चला आया है, कि रंगों की या रसों की इतनी बहुलता हो जाती है, कि कभी कभी वातवरण निर्मिती नही हो पाती है, और पाठक कविता के मूल कथावस्तु से छिटका छिटका सा रहता है.मगर ये क्षम्य इसलिये है, कि इस तरह के संग्रह को किसी जासूसी नॊवेल की तरह आदि से लेकर अंत तक अविराम पढा़ नहीं जा सकता, वरन जुगाली की तरह संत गति से विराम के क्षणों में ही पढा़ जाना चाहिये.

हालांकि इन कविताओं में काफ़िया मिलाने का कोई यत्न नहीं किया गया है, ना ही कोई दावा है, मगर किसी किसी जगह कविता की लय बनते बनते ही बीच में कोई विवादी शब्द विवादी सुर की मानिंद आ जाता है, तो खटकता है, और कविता के गेय स्वरूप की संभावनाओं को भी नकारता है.

संक्षेप में , मैं एक कवि ना होते हुए भी मुझे मानवीय संवेदनाओं के कोमल पहलु से अवगत कराया, रंजु जी के सादे, सीधे, मगर गहरे अर्थ वाले बोलों नें, जो उन्होने चुन चुन कर अपने अलग अलग कविता से हम पाठकों के समक्ष रखे हैं. वे कहीं हमें हमारे खुदी से,स्वत्व से,या ब्रह्म से मिला देते है, तो कभी हमें हमारे जीवन के घटी किसी सच्ची घटना के अनछुए पहलु के दर्शन करा देते है.क्या यही काफ़ी नही होगा साया को पढने का सबसे बडा़ कारण?


--दिलीप कवठेकर

मुद्रित मूल्य- रु 120
हिन्द-युग्म के पाठकों के लिए- रु 100

कविता-संग्रहः अनुभूतियाँ- दीपक चौरसिया 'मशाल'

'अनुभूतियाँ' दीपक चौरसिया 'मशाल' का काव्य-संग्रह- अनुभूतिओं का दस्तावेज़ है। एक-एक अहसास कदम-दर-कदम हमें बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है। कवि का परिवेशीय व्यक्तित्व उसकी कलम की आत्मा है। जीवन के हर रंग रचनाओं में दृष्टिगत हैं।

दीपक मशाल की पहली कविता 'आज भी' दिन भर फिरकनी सी खटती माँ का बहुमूल्य सार है, कई माओं के चेहरे जीवंत हो उठते हैं।

कई प्रतीक्षित पार्थ की आँखों के दर्द को बखूबी उकेरते हुए पूछा है 'हल्का क्यों है सच का पलड़ा?' कृष्ण का आह्वान कलम की पूर्णता है। सोच में हर बात से अलग ब्रह्माण्ड की सोच नयी बातों का सिरा है, जिसे पकड़कर हम बहुत कुछ सोचने को बाध्य होते हैं। उम्र के २९वें पड़ाव तक पहुँचते हुए कवि कई अनुभूतियों से गुज़रा हुआ मिलता है, ये कहते हुए कि-

'कृष्ण बनने की कोशिश में
मैं भीष्म होता जा रहा हूँ,
अक्सर चाहता हूँ वसंत होना
जाने क्यों ग्रीष्म होता जा रहा हूँ!'

देश की स्थिति को उजागर करते हुए भाव दिल को झकझोरते हैं-

'बापू तेरी सच्चाई की बोली
कब लगनी है?
बापू तेरे आदर्शों की बोली
कब लगनी है?'
हारे
हुए हालातों को कवि खुले द्वार देता है..

पूरे संग्रह का एक पक्ष बहुत ही गंभीर और प्रशंसनीय है.........'छोटी बऊ(दादी)' का चित्रण, जो कि कवि के ही शब्दों में ही 'एक अतुलनीय प्रेम का प्रतिष्ठापन है', जो उनकी काकी दादी को सम्मान देता है।

--रश्मि प्रभा

मुद्रित मूल्य- रु 250
हिन्द-युग्म के पाठकों के लिए- रु 125

Thursday, January 21, 2010

कविता संग्रह- शोर के पड़ोस में चुप सी नदी- मनीष मिश्र

2010 में हिन्द-युग्म ने अपनी गतिविधियों में एक और अध्याय जोड़ा है। लेकिन यह अध्याय इच वर्चुएल स्पेस से बाहर तैयार हुआ है। इस वर्ष हिन्द-युग्म ने अपने मुद्रित प्रकाशन की शुरूआत की है, जिसके अंतर्गत 5 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है।


पूरा कवर देखने के लिए ऊपर के चित्र पर क्लिक करें
'शोर के पड़ोस में चुप सी नदी' युवा कवि मनीष मिश्र का कविता संकलन है। हिन्द-युग्म के पाठक मनीष मिश्र की कविताओं से परिचित हैं। नये पाठक निम्नलिखित लिंकों से मनीष की कविताओं का रसास्वादन कर सकते हैं-


डॉ मनीष मिश्र पिछले दो दशकों से समकालीन प्रगितिशील हिंदी कविता के सतत सक्रिय और संभावनापूर्ण कवि हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं सहित समकालीन भारतीय साहित्य (ज्ञानपीठ) में कवि की रचनाओं का अनोखा संसार सामने आया है। निजी जीवन के रागात्मक लगावों को कविताओं में प्रमुखता दी गयी है। ये कविताएँ ना जीतने की शर्त लगाती हैं, ना हारने का मातम। ज्यादातर कविताएँ रिश्तों के इर्द-गिर्द बुनी गयी हैं- लेकिन उनकी जमीन विलग है। ये जिंदगी को ताकती हुई कविताएँ हैं। ये कविताएँ शिल्प के अद्‍भुत विन्यास में लिपटी दिखती हैं। कवि के रचना-संसार में निराशा का वीतराग है तो आशा का जगमग पड़ोस भी।


३ सितम्बर को फतेहपुर (उ॰प्र॰) में जन्मे मनीष मिश्र पेशे से वैज्ञानिक हैं और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के लखनऊ स्थित संस्थान में जैव-तकनीक पर शोध करते हैं। ८० से अधिक शोध-पत्र एवं विज्ञान पर तीन पुस्तकें प्रकाशित कर चुके हैं। आपका पहला संग्रह ‘हमें चाहिए खिलखिलाहटों की दो चार जड़ें’ २००१ में प्रकाशित हुआ था। डॉ मनीष मिश्र के अनुभव की जमीन उनकी कविताओं की तरह ही विविध है।

पुस्तक की प्रति सुरक्षित करवायें-

सजिल्द संस्करण (हार्ड बाइंड)
मुद्रित मूल्य- रु 100
हिन्द-युग्म के पाठकों के लिए- रु 70

जीवनी- भगत सिंहः इतिहास के कुछ और पन्ने- प्रेमचंद सहजवाला

प्रेमचंद सहजवाला हिन्दी के अतिवरिष्ठ और अतिसक्रिय कार्यकर्ता हैं। दिल्ली शहर की साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की रिपोर्टिंग इन्होंने किसी युवा पत्रकार से भी बढ़कर की। प्रेमचंद सहजवाला एक सफल कहानीकार रह चुके हैं। विगत 4-5 वर्षों से ग़ज़ल-लेखन कर रहे हैं।

सहजवाला की भारतीय सामाज और इतिहास में गहरी रुचि है। प्रेम को भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दो महारथियों महात्मा गाँधी और भगत सिंह ने बहुत प्रभावित किया, इसलिए पिछले 3 वर्ष से इन दोनों को खूब पढ़ा और इन दोनों पर प्रकाशित पुस्तकों को खंगाला। इसी दौरान इन्होंने पाया कि बाज़ार में भगत सिंह के समग्र व्यक्तित्व और गाँधी के साथ उनके मतांतर पर हिन्दी भाषा की सरल शैली में प्रमाणित और स्तरीय पुस्तकें बहुत कम संख्या में उपलब्ध हैं। अतः प्रेमचंद ने सरल हिन्दी भाषा में 13 निबंधों की शक्ल देकर एक पुस्तक लिखी 'भगत सिंहः इतिहास के कुछ और पन्ने'।

इस पुस्तक के कुछ अंश बहुत पहले हिन्द-युग्म पर सिलसिलेवार ढंग से प्रकाशित हैं। इस पुस्तक का विमोचन 12 दिसम्बर 2009 को महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने किया और कहा कि प्रेमचंद ने भगत सिंह से सम्बंधित बहुत सी जानकारियों को कम पृष्ठों में समेटकर बहुत नेक काम किया है।

हमारे ख्याल से यह एक संग्रहणीय पुस्तक है। आप भी इसे अपने पठन का हिस्सा बनायें।

मुद्रित मूल्य- रु 150
छूट के बाद- रु 120

कविता संग्रह- पतझड़ सावन वसंत बहार- अनुराग शर्मा

लेखक - अनुराग शर्मा और साथी (वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया)
समीक्षक - पंकज सुबीर

पिट्सबर्ग अमेरिका में रहने वाले भारतीय कवि श्री अनुराग शर्मा का नाम वैसे तो साहित्‍य जगत और नेट जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है । किन्‍तु फिर भी यदि उनकी कविताओं के माध्‍यम से उनको और जानना हो तो उनके काव्‍य संग्रह पतझड़, सावन, वसंत, बहार को पढ़ना होगा । ये काव्‍य संग्रह छ: कवियों वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया और अनुराग शर्मा की कविताओं का संकलन है । यदि अनुराग जी की कविताओं की बात की जाये तो उन कविताओं में एक स्‍थायी स्‍वर है और वो स्‍वर है सेडनेस का उदासी का । वैसे भी उदासी को कविता का स्‍थायी भाव माना जाता है । अनुराग जी की सारी कविताओं में एक टीस है, ये टीस अलग अलग जगहों पर अलग अलग चेहरे लगा कर कविताओं में से झांकती दिखाई देती है । टीस नाम की उनकी एक कविता भी इस संग्रह में है ’’एक टीस सी उठती है, रात भर नींद मुझसे आंख मिचौली करती है ।‘’

अनुराग जी की कविताओं की एक विशेषता ये है कि उनकी छंदमुक्‍त कविताएं उनकी छंदबद्ध कविताओं की तुलना में अधिक प्रवाहमान हैं। जैसे एक कविता है ‘जब हम साथ चल रहे थे तक एकाकीपन की कल्‍पना भी कर जाती थी उदास’ ये कविता विशुद्ध रूप से एकाकीपन की कविता है, इसमें मन के वीतरागीपन की झलक शब्‍दों में साफ दिखाई दे रही है । विरह एक ऐसी अवस्‍था होती है जो सबसे ज्‍यादा प्रेरक होती है काव्‍य के सृजन के लिये। विशेषकर अनुराग जी के संदर्भ में तो ये और भी सटीक लगता है क्‍योंकि उनकी कविताओं की पंक्तियों में वो ‘तुम’ हर कहीं नजर आता है। ‘तुम’ जो कि हर विरह का कारण होता है। ‘तुम’ जो कि हर बार काव्‍य सृजन का एक मुख्‍य हेतु हो जाता है। ‘घर सारा ही तुम ले गये, कुछ तिनके ही बस फेंक गये, उनको ही चुनता रहता हूं, बीते पल बुनता रहता हूं ‘ स्‍मृतियां, सुधियां, यादें कितने ही नाम दे लो लेकिन बात तो वही है। अनुराग जी की कविताओं जब भी ‘तुम’ आता है तो शब्‍दों में से छलकते हुए आंसुओं के कतरे साफ दिखाई देते हैं। साफ नजर आता है कि शब्‍द उसांसें भर रहे हैं, मानो गर्मियों की एक थमी हुई शाम में बहुत सहमी हुई सी मद्धम हवा चल रही हो । जब हार जाते हैं तो कह उठते हैं अपने ‘तुम’ से ‘ कुछेक दिन और यूं ही मुझे अकेले रहने दो’। अकेले रहने दो से क्‍या अभिप्राय है कवि का। किसके साथ अकेले रहना चाहता है कवि। कुछ नहीं कुछ नहीं बस एक मौन सी उदासी के साथ, जिस उदासी में और कुछ न हो बस नीरवता हो, इतनी नीरवता कि अपनी सांसों की आवाज को भी सुना जा सके और आंखों से गिरते हुए आंसुओं की ध्‍वनि भी सुनाई दे।

एक कविता में एक नाम भी आया है जो निश्चित रूप से उस ‘तुम’ का नहीं हो सकता क्‍योंकि कोई भी कवि अपनी उस ‘तुम’ को कभी भी सार्वजनिक नहीं करता, उसे वो अपने दिल के किसी कोने में इस प्रकार से छुपा देता है कि आंखों से झांक कर उसका पता न लगाया जा सके। "पतझड़ सावन वसंत बहार" संग्रह में अनुराग जी ने जो उदासी का माहौल रचा है उसे पढ़ कर ही ज्‍यादा समझा जा सकता है। क्‍योंकि उदासी सुनने की चीज नहीं है वो तो महसूसने की चीज है सो इसे पढ़ कर महसूस करें।

मुद्रित मूल्य- 250

निबंध संग्रह - राष्ट्रीयता दर्शन और अभिव्यक्ति - अशोक मनीष

एक ऐसे संक्रान्ति काल में जब एक ओर ‘जेनरेशन गैप’ की निरंतर चौड़ी होती हुई खाई ‘वर्तमान में जीने के फैशन’ का प्रचलन तथाए ‘मार्केटिंगश् अथवा ‘बिकने-बेचे जाने वाले के कौशल’ का महिमामंडन ही नहीं वह आजीविका का चरम लक्ष्य बन गया हो; ऐसे काल में जहाँ आदमी एक ही साथ कई चेहरे ओढ़ने के लिए बाध्य हो, दफतर-दुकान में अलग, घर-परिवार में अलग, वोट डालते समय अलग, बच्चों को ‘होमवर्क’ कराते समय अलग, टिकट खिड़की पर टिकट खरीदते समय अलग, तो ऐसे समाज से किसी गंभीर चिन्तन की अपेक्षा करना व्यर्थ है। परंतु इन्हीं अतिरेक की स्थितियों में हम आप सभी कुछ क्षण विश्रान्त होना चाहते हैं। जिसमें बहुधा हम गप-शप और अपना मनोरंजन करते हैं। ऐसे में यदि कोई गंभीर बात की जाए तो उसे कौन सुनेगा? परंतु इस स्थिति में भी जब आपने यह पुस्तक उठा ही लिया है और ये लाइनें पढ़ रहे हैं। तो निश्चय ही आप कुछ चुने हुए लोगों में से हैं। और सामान्यतः ऐसे ही कुछ चुने हुए लोगों के लिए यह पुस्तक ‘राष्ट्रीयता दर्शन और अभिव्यक्ति’ है।

देश, राष्ट्र, मानवता और विश्व बन्धुत्व के उदात्त विचारों ने कभी न कभी सभी विचारशील व्यक्तियों को आकर्षित किया है। ‘राष्ट्र’, किसी देश विशेष के लिए प्रयुक्त क्षेत्र का बोधक शब्द नहीं है, हिदुस्तान में यह भाववाचक-संज्ञा भी है, किसी चिन्तन धारा राजनीतिक हिन्दूवाद या किसी अति भावुक उदगार के कारण से नहीं, वरन् उससे भी परे किसी उच्चतर उदगम से निःसृत होने के कारण कोई देश अपने सच्चे निहितार्थ में वास्तविक राष्ट्र होता है।

इस पुस्तक के लेखक एक विशिष्ट व्यक्ति कहे जा सकते हैं। उनकी वृत्ति लेखन नहीं है बल्कि वह आध्यात्मिक साधक हैं। ऐसे साधक जो कुछ कहते हैं तो उसके पीछे उनकी लोक प्रशंसा की आशा और संकुचित स्वार्थ नहीं वरन् साधना की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। यह इसी बात से सिद्ध है कि लेखक कतिपय आध्यात्मिक पत्रिकाओं जैसे श्री अरविन्द कर्मधारा जैसी पत्रिकाओं में अपने आध्यात्मिक अनुभवों को बाँटने की सदिच्छा से ही लिखते रहे हैं। धर्म और दर्शन के गहन अध्येता और एक साधक होने के कारण उन्होंने जो भी स्वान्तः सुखाय या आत्मविश्लेषण स्वरुप लिखा है उसमें से बहुत कुछ अब श्री वह एकान्तिक बनाये हुए हैं। कारण उनमें न तो व्यवासायिक न ही आत्म-प्रदर्शन की इच्छा रही है। यहाँ तक कि जब उन्होंने अपनी एक रचना को जिसे वे ‘संकलन’ कहना पसंद करते हैं, जब अपने कुछ मित्रों को दिखलाया तो किसी ने उसकी एक प्रति उत्तर-प्रदेश सरकार को भेजने के लिए प्रेरित कर दिया और जब शासन ने उन्हें इसके प्रकाशन में आर्थिक सहायता प्रदान की तो वे विचलित हो गये, प्रसन्नता के मारे नहीं, वरन् स्वीकृत धनराशि का ईमानदारी से सदुपयोग करने के लिए और इस क्रम में उन्हें आर्थिक कठिनाइयों से भी जूझना पड़ा। आज उनकी वह रचना ‘एक मन की आध्यात्मिक यात्रा’ अनेक साधकों की मार्गदर्शिका है। ऐसी ही है प्रस्तुत पुस्तक के लेखक की वृति, उनका विलक्षण अध्ययन, साधना और अध्यवसाय।

प्रस्तुत पुस्तक का विषय वस्तु समसामयिक है। प्रथम दृष्ट्रया तो प्रतीत होगा कि लेखक शायद राजनीति अभिप्रेरित राष्ट्र की बात करेंगे परंतु आश्चर्य होता है कि उन्होंने इस शब्द (राष्ट्र) को विक्रमशिला और नालंदा के प्राचीन पुस्तकों की राख, असंख्य भारतीय और योरोपीय दर्शनों के मलबे में से निकाल कर, झाड़-पोंछ कर, वर्तमान युग के संदर्भ में, वैदिक कालीन गरिमा के प्रकाश-स्तंभ के रूप में स्थापित किया है। राष्ट्रीयता की वर्तमान अस्पष्ट एवं संकुचित संकल्पना को प्राचीन भारतीय अवधारणा वैदिक काल के मंतव्य और अभिप्राय की कालजयी ऐतिहासिक यात्रा के परिपेक्ष्य में उन्होंने प्रस्तुत करने का यत्न किया है। ऐसा करते हुए लेखक ने पहले वास्तविक राष्ट्रीयता का स्वरूप स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उसकी दार्शनिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विवेचना की है। ऐसा करने में अनिवार्यतः उन्हें गहन दार्शनिक-प्रत्ययों और राजनीति-शास्त्र के रणांगण से निकलकर, परामनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में प्रवेश करना पड़ा है। पुस्तक पढ़ते हुए लगता है कि लेखक प्राचीन भारत के विराट भग्नावशेषों से अभिभूत हो उठ है तथा राष्ट्र को वह समष्ठि के एक आदर्श धर्म या रिलिजन के रूप में स्थापित कराना चाहते हैं पर ऐसा है नहीं। लेखक की दृष्टि समष्टि की सामाजिक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक अवधारणा से भी आगे है। ‘प्रकृतिस्थ-पुरूष की खोज तो सच्ची आध्यात्मिक सत्ता के जागरण का केवल पहला पग होता है’। वह व्यक्ति और समिष्ट में बिना भेद एवं पक्षपात किये कम से कम तीन उच्चतर रूपान्तरणों की बात करते हैं। और तब समझ में आता है कि लेखक ने श्री अरविन्द के योग का एक आध्यात्मिक साधक होने के अपने धर्म और दिव्य चेतना के उच्चतरों से प्रेरित होकर ही इस पुस्तक का सृजन किया है।

कुछ लोगों को लेखक द्वारा महर्षि श्री अरविन्द के ‘पूर्ण-योग’ के दर्शन को बार-बार उदधृत करना खटक सकता है। परंतु क्या किया जाए? लाचारी है, अन्य किसी मनीषी ने तो अतिमन, विकसनशील अध्यात्मिकता, और चैत्य पुरूष की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए वर्तमान यथार्थ की निम्नतर चेतना-स्तर की कंक्रीट की नींव ( तारकोल, खेत, खलिहानों के जगत और हाड़-मांस के मनुष्यद्) और ‘सर्वोच्च अध्यात्मिक चेतना स्तर’ के बीच ‘लिंक’ (सेतु) बनाने और जड़ भौतिक में तदनुसार उस आध्याम्तिक चेतना की अभिव्यक्ति का प्रयास और उसकी सफलता का आश्वासन भी तो नहीं दिया। मेरी समझ में पुस्तक की समस्त गरिमा ‘अनिर्वचनीय’ को ‘वर्चनीय’ ‘अमूर्त’ को ‘मूर्त’ करने का उपाय बताने में निहित है।

अन्त में, मैं यह स्वीकार करना चाहूँगा कि मैं अपने को पुस्तक के विषय-वस्तु पर कुछ कहने का अधिकारी विद्वान नहीं समझता परंतु, लेखक के आग्रह पर अपने दो शब्द कहने से मैं अपने को रोक भी नहीं पा रहा हूँ। अस्तु, भारी मन से मैं यह धृष्टता कर रहा हूँ। इस प्रकार की धृष्टताओं के औचित्य के संबध में विश्वविद्यालय-शिक्षा से वंचित मनीषी, महापंडित राहुल सांकृत्यान के शब्दों को उद्धरित करता हूँ-“ऐसी धृष्टता के लिए मैं मजबूर था। जब तक अधिकारी व्यक्ति हिन्दी तथा केवल हिन्दी-दाँ जनता को अपनी कृपा का पात्र नहीं समझते तब तक मेरे जैसे अनधिकारियों को धृष्टता करनी ही होगी।“ (“विश्व की रूपरेखा”, प्र॰सं॰-1944 ‘प्रक्कथन’ से)।

सतीशचन्द्र श्रीवास्तव ‘सफरचंद’
668/8 रामेश्वरपुरी, बस्ती (उ॰प्र॰)