Wednesday, December 16, 2009

कहानी संग्रह- कांधा - संगीता सेठी

‘यह कोई कहानी नहीं है जिसे पढ़कर आप एक तरफ रख दें, यह एक हक़ीक़त है, एक सच्चाई….एक यथार्थ है जिसे बहुत निकट से देखा है, मैंने महसूस किया है और भोगा भी है।…’

इस संग्रह की एक कहानी निर्णय की ये आरंभिक पंक्तियाँ लेखिका के पूरे रचना कर्म और उनकी प्रतिबद्धता को स्पष्ट कर देती हैं। संगीता सेठी की विशेषता उनकी यही बेलाग अभिव्यक्तियाँ हैं जो इस संग्रह की हर रचना में मौज़ूद हैं। संगीता हिन्दी के नारी लेखन की उस परम्परा में है जो अपनी स्थितियों के प्रति सजग तो है ही, एक अर्द्ध सामंती पितृसत्तात्मक समाज में नारी की अस्मिता और सम्मान के लिए सदा संघर्षशील नज़र आती है। लेखन की भूमिका प्राथमिक तौर और अंततः भी अपने समाज की दैनंदिन की छोटी-छोटी घटनाओं को समझना और अभिव्यक्त करना तो है ही, इससे भी बड़ी बात यह है कि ऐसी दृष्टि देना, जो हमें आगे की ओर ले जाए। साहित्य का काम जो है उसका उत्सव मनाना मात्र नहीं है बल्कि जो होना चाहिए उसकी समझ और ललक पेदा करना भी है।

संगीता की कहानियाँ समकालीन सच की बेलाग अभिव्यक्तियाँ हैं और स्त्री के दैनंदिन जीवन की आम घटनाओं को अपनी रचनात्मकता से विशिष्ट अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं। आम जीवन के छोटे-छोटे लगनेवाले प्रसंगों का विवेचन कर अपनी रचनात्मकता से वह उन्हें बेचैन कर देने वाली कहानियों में बदल देती हैं। जीवन की तो छोड़िये, मृत्युपरांत तक के कर्मकांडों में स्त्री की उपेक्षा से लेकर आँगन के नीम को बचाने के संघर्ष तक की कहानियाँ बतलाती हैं कि लेखिका जीवन के प्रति किस तरह से सचेत है और किस तरह से वह स्त्री-पुरूष असामनता के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करती है। उन की रचनाओं में एक सजग कथाकार की ऊर्जा और प्रतिबद्धता है।

--पंकज बिष्ट, वरिष्ठ कथाकार, चर्चित पत्रिका ‘समयांतर’ के संपादक

संगीता सेठी का कहानी संकलन महीन और गहन संवेदनाओं की मंजूषा है। पारिवारिक परिवेश से कहानी के बीज़ों को लेने की उनकी क्षमता सराहनीय है। कहानी उनके लिए बौद्धिक कसरत नहीं है। मार्मिक मुहूर्तों की तलाश में वे अत्यंत निपुण हैं। हृदय तत्व को आज की कहानी में पुनः प्रतिष्ठा मिलना एक आनंदपूर्ण अनुभव है। कांधा संकलन हिन्दी के महिला लेखन की क्रांति का नया परिचायक है। वेलेंटाइन डे परंपरागत प्रेम कहानी से अलग पहचान बनाती है। आज के प्रेम में भी समर्पण की भावना के चलते अलभ्य के प्रति आकर्षण और उसका ज़ादू कहकर संगीता ने मोबाइल में कुछ अनुभूत सत्यों को अभिव्यक्ति दी है। वह जी का जंजाल कैसे बन जाता है इसका वर्णन कहानीकार ने कलात्मक चारुता से किया है।

कांधा की भावभूमि अनोखी है। स्त्री पक्ष की आवाज़ गौण नहीं है। मां के मृत शरीर पर बेटी को हाथ लगाने नहीं दिया जाता है। इस कहानी में दुःख और आक्रोश के स्फुलिंग घुल-मिल जाते हैं। संगीता की मौलिक सृजन प्रतिभा यहाँ उभर आती है। कल्याण भूमि, तर्पण, निर्णय, बेटी होने का दर्द, बुआजी जैसी कहानियों में भी गहन संवेदना मिलती है।

--डॉ॰ आरसू, प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कालीकट विश्वविद्यालय, केरल

मुद्रित मूल्य- 95

Friday, November 20, 2009

कविता-संग्रह : नदी पुकारे सागर - सरस्वती प्रसाद

वयोवृद्ध कवयित्री सरस्वती प्रसाद दीर्घकाल से रचनाकर्म में संलग्न है। वर्ष 2001 में इनका एक काव्य-संकलन 'नदी पुकारे सागर' प्रकाशित हुआ, जो काव्यप्रेमियों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ। इसकी भूमका का समापन करते हुए सरस्वती लिखती हैं-

शून्य भिति पर गई उकेरी
काल की चारु कृतियाँ थीं,
नहीं थी वे इतिहास शिल्प
सहचरी मेरी स्मृतियाँ थीं.
मति चल न सकी बटमारों की
वे मेरे साथ यूँ बनी रही
हुई धूप प्रचंड स्थितियों की
तो कादम्बिनी सी तनी रहीं
इतना सामर्थ्य कहाँ होगा
जो उनके दिए का दाम भरूँ
कर सकती हूँ तो मात्रा यही
जो-भावभूमि उन्होंने दी
उस पर अंकित ये शब्द-चित्र
मैं नत हो उनके नाम करूँ

सरस्वती प्रसाद के इस संग्रह में सुमित्रानंदन पंत द्वारा लिखित वह कविता भी शामिल है जिसे पंत ने बेटी सरस्वती के प्रयाग आगमन पर लिखी थी। इस संकलन में पंत की हस्तलिपि में वह कविता अंकित है-

चन्द्रकिरण किरीटिनी
तुम, कौन आती ?
मौन स्वप्नों के चरण धर!
ह्रदय के एकांत शांत
स्फटिक क्षणों को
स्वर्ग के संगीत से भर!
मचल उठता ज्वार,
शोभा सिन्धु में जग,
नाचता आनंद पागल
शिखर लहरों पर
थिरकते प्रेरणा पग!
सप्त हीरक रश्मि दीपित
मर्म में चैतन्य का
खुलता गवाक्ष रहस्य भर कर!
अमर वीणाए निरंतर
गूंज उठती , गूंज उठती
भाव निह्स्वर ---
तारको का हो खुला स्वप्नाभ अम्बर!
वैश्व लय में बाँध जीवन को
छिपाता मुख पराशर,
मर्त्य से उठ स्वर्ग तक
प्रसाद जीवन का अनश्वर
रूप के भरता दिगंतर!
चन्द्रकिरण किरीटिनी
तुम, कौन आती ?
मौन स्वप्नों के चरण धर!

(संग्रह में सम्मिलित पंत की हस्तलिपि में लिखी कविता की चित्रात्मक झलक)

Thursday, November 19, 2009

नाटक : सम-बंध - सुमीता प्रवीण केशवा

बाज़ार में जल्द ही उपलब्ध होगी

समलैंगिक सम्बंधों पर आधारित एक संग्रहणीय नाटक

अपमान रचयिता का होगा- संतोष श्रीवास्तव (वरिष्ठ लेखिका,पत्राकार)

पिछले साल फर्नीचर मॉल में मेरी मुलाकात दो महिला पुलिसकर्मियों से हुई जो समलैंगिक थीं और अपना आशियाना बनाने के लिए फर्नीचर की खरीद-फरोख़्त कर रहीं थीं। उनके चेहरे की खुशी देखने लायक थी। मैं देख रही थी कानून के क्षेत्रा के समलैंगिक कार्यकर्ताओं को समलैंगिकता के वैध घोषित होते ही खुलेआम अपने संबधों को स्वीकृति देते। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का वक्तव्य है कि समलैंगिकता पर दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले का विरोध नहीं करना चाहिए। भारत ऐसा 127 वां देश है जहां फिलहाल समलैंगिकता वैध है जबकि 80 देशों में इसे अपराध मानते हैं।

दुनिया में कितनी चीजें अप्राकृतिक हो रही हंै। मनु द्वारा स्थापित विवाह संस्था भी तो दूषित हो गई है जहां पति-पत्नी में समझौता न होना, अप्राकृतिक सैक्स आदि के मामले सामने आये हैं। कामसूत्र, खजुराहो की मूर्तियां, कोर्णाक मंदिर की मूर्तियां ऐसे अप्राकृतिक काम के उदाहरण हैं। अदालत ने जो इसे मान्यता दी है वह पर्याप्त शोध और तर्कों पर आधारित है। हर व्यक्ति में नर-मादा के अंश पाये जाते हैं। जो व्यक्ति अंतर्मुखी होते हैं और घर,परिवार, अड़ोस-पड़ोस मित्रों के जमावड़े में तिरस्कृत होते हैं उनमें प्रायः समलैंगिकता के प्रति झुकाव होता है। संयुक्त परिवारों में विवाह से पूर्व लड़के लड़की के प्रति अति कठोर रवैय्या अपनाया जाता है। यदि वे पास-पास बैठ भी गये तो इस पर भी घर के बड़े बूढ़े आपत्ति उठाते हैं-‘‘तू लड़कों के बीच क्या कर रही है ? या........इस तरह के कपड़े क्यों पहने हैं ? शरीर के उभारों को ढंक कर रखना सीख.....वगैरह,वगैरह । लड़की के नारीत्व को जब इस तरह दबाया जाता है तो उसके अंदर का पुरुष अंश जागृत हो जाता है। और समलैंगिकता को बढ़ावा मिलता है।

खबर है कि दिल्ली हाईकोर्ट से हरी झंडी मिलते ही चंडीगढ़ में तीन समलैंगिक जोड़ो ने खुल्लम-खुल्ला विवाह कर लिया। ऐसी घटनायें हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि चाहे कानून इस बात के लिए अपनी स्वीकृति दे या न दे इंसान ऐसे संबंधों से इंकार नहीं कर सकता। क्योंकि यह उसके शरीर और व्यवहार की मांग है।

ऐसे संबंधों को लेकर विभिन्न मठों के मठाधीश,साधु संत और बाबाओं के अपने तर्क हैं। वे ब्रह्मचर्य को ईश्वर प्राप्ति की महत्वपूर्ण कड़ी मानते हैं। यदि सभी व्यक्ति ब्रह्मचारी हो गये तो सृष्टि का क्या होगा ? विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव का समूल विनाश हो जाएगा। एक ओर ईश्वर को पाने के लिए ब्रह्मचर्य पालन और दूसरी ओर उसकी कृति का अपमान ! प्रश्न यह भी उठ सकता है कि ऐसी स्थिति में संतानोत्पत्ति असंभव है। विज्ञान ने इसका भी हल खोज निकाला है ‘किराये की कोख‘ न केवल विज्ञान बल्कि हमारा पौराणिक युग भी इस बात का साक्षी है।

सुमीता प्रवीण ने मकड़जाल में उलझे ऐसे सम्बन्धों पर समयानुकूल नाटक लिखा है। इस विषय पर कलम उठाने के लिए मैं उनके साहस की सराहना करती हूं। और यह कामना भी कि अगर यह नाटक मंचित हो तो अधिकाधिक लोगों तक यह बात पहुंचेगी।

पुस्तक का मुद्रित (प्रिंटेड) मूल्य- रु 100
हिन्द-युग्म के पाठकों के लिए- रु 80
यदि आप पंजीकृत डाक से पुस्तक प्राप्त करना चाहें तो- रु 80 + रु 20= रु 100
पुस्तक खरीदने के लिए pustak@hindyugm.com पर संपर्क करें।


यह पुस्तक प्रगति मैदान, नई दिल्ली में 30 जनवरी 2010 से 7 फरवरी 2010 तक, 19वाँ विश्व पुस्तक मेला के दौरान हिन्द-युग्म के स्टॉल (हॉल नं॰ 12A, स्टॉल नं॰- 285) पर विक्रय के लिए उपलब्ध है। जरूर पधारें।

Saturday, November 14, 2009

कविता-संग्रह : अनमोल संचयन, संपादन- रश्मि प्रभा

इसका विमोचन 31 जनवरी 2010 को विश्व पुस्तक मेला में हिन्द-युग्म के कार्यक्रम में प्रसिद्ध कवि बालस्वरूप राही ने किया

भावनाओं की आँच से तपे, निखरे शब्दों ने मुझे हमेशा अपने पास बुलाया. मैंने उन शब्दों से कभी घरौंदा बनाया, कभी फूलों की क्यारी, कभी कागज़ की नाव, कभी कलकल करती नदी ........यही मेरा खेल, मेरा सुकून रहा.शब्दों की तिलस्मी दुनिया से गुजरना, उसमें से कुछ अनकहे को ढूंढ़ना और सुनना मेरी दिनचर्या का सशक्त पल बना.

जाने-अनजाने शब्दों के रिश्ते बनते गए, मीठे पानी के स्रोत की तरह मेरी प्यास बुझाते गए.....फिर अचानक, एक दिन यह ख्याल आया कि इन्हें संजो लूँ और शब्द प्रेमियों की हथेली भर दूँ, आँखें प्रोज्ज्वलित कर दूँ, भावनाओं के तार जोड़ दूँ ......

कविता में एक जादू होता है....क्यों होता है,किसी को नहीं पता ! पर होता है...लिखता कोई है,पर वही भावना जाने कितनों का सुकून बन जाती है . कोई लिख लेता है, कोई बस सोचता है - एक कवि की कलम कईयों की जुबान बन जाती है.....इन्हीं सुकून के हिस्सों को मैं एक जगह लेकर आई हूँ . अलग - अलग जज़्बात , अलग - अलग एहसास !

संचयन मेरा ख्वाब था, मेरा प्रयास बना.........पर इस संचयन में इसमें संचित हर कवियों का उस प्रयास की सफलता में बराबर का योगदान रहा. सूरत की प्रीती मेहता ने अपनी कलम के बोल तो शामिल किये ही , मुख्य आवरण में काव्य सदृश गंभीर रंग भरे हैं.
मुझे विश्वास है कि हमारा यह सम्मिलित प्रयास आपके एकांत का मित्र बनेगा.

सादर
रश्मि प्रभा
(संकलन व संपादन)

मुद्रित मूल्य- रु 200
हिन्द-युग्म के पाठकों के लिए- रु 160

Friday, November 13, 2009

उपन्यास : एक पहल ऐसी भी- सुमीता प्रवीण केशवा

समाजबोध और दायित्व का ईमानदार निर्वाह- आलोक भट्टाचार्य

प्रगति और विकास के माध्यम से स्थापित होने वाली जीवन-शैली ही दरअसल आधुनिकता है, जिसके प्रभाव से समय-समय पर मानवीय जीवन-मूल्यों में कभी थोड़े- बहुत तो कभी आमूल परिवर्तन आते हैं- सामाजिक स्तर पर भी, और व्यक्तिगत स्तर पर भी। चूंकि ऐसे परिवर्तन हमेशा ही नयी पीढ़ी का हाथ पकड़कर समाज में प्रवेश करते हैं, अक्सर बुज़र्ग पीढ़ी की स्वीकृति इन्हें आसानी से नहीं मिलती। वे इन्हें अनैतिक कह देते हैं। असामाजिक और पतनोन्मुख करार देते हैं। सचाई यह है कि ज्ञान-विज्ञान के नये-नये आविष्कारों की वजह से वजूद में आये मूल्य पतित नहीं हो सकते। अमानवीय या असामाजिक या अनैतिक नहीं हो सकते । बल्कि इन्हीं मूल्यों को अपनाकर व्यक्ति प्रगति और विकास का वास्तविक लाभ ले सकता है। जो नहीं अपनाता, वह पिछड़ जाता है।

किसी भी नयी चीज़ को खासकर जीवन- मूल्यों और जीवन- शैली को स्वीकार करने में समाज कुछ वक्त तो लेता ही है। ऐसे में साहित्य के माध्यम से उन्हें सहज ही स्वीकार्य बनाया जा सकता है। मान्यता देने, अपनाने में जितना ज़्यादा समय लगेगा, विकास-गति उतनी ही धीमी पड़ेगी। अतः ऐसे प्रसंगों में साहित्य का अपना निजी दायित्व भी होता है। इसी दायित्व का निर्वाह किया है प्रस्तुत उपन्यास की लेखिका सुमीता पी.केशवा ने। मै उन्हें विशेष श्रेय इसलिए भी देना चाहता हूं कि इतने गूढ़ दायित्व का निर्वाह उन्होंने अपनी पहली ही कृति के माध्यम से किया है।

भारतीय समाज में आज भी ‘टेस्ट-ट्यूब बेबी‘ और ‘सरोगेट मदर‘ जैसे अत्यंत उपयोगी उपायों को सहज स्वीकृति नहीं मिल पायी, जब कि अब तो ये बहुत नये भी नहीं रहे। जिस देश में हज़ारों वर्ष पहले निःसंतान दंपतियों की संतान-प्राप्ति के लिए ‘ नियोग‘ पद्धति का समाजिक प्रचलन रहा हो, उस समाज में ‘टेस्ट-ट्यूब बेबी‘ और ‘सरोगेट मदर‘ जैसी पद्धतियों के प्रति आज भी एक प्रकार का नकारात्मक भाव पाया जाना चकित करता है। रामायण, महाभारत , उपनिषद- सभी जगहों में नियोग को मान्यता है। भारतीय समाज में आज भी तलाक और पुर्निर्ववाह को सहजता से नहीं लिया जाता, जबकि हमारे ग्रंथों में बहुविवाह, पुनर्विवाह, विधवा-विवाह तो हैं ही, कुमारी माता भी हैं।

ज्ञान-विज्ञान के नये आविष्कारों से वजूद में आये नये उपाय-पद्धति और मूल्य समाज के लिए निश्चित तौर पर अत्यंत ही लाभकारी हैं। इसमें शक या बहस की कोई गुंजाइश नहीं। बस, ध्यान इस बात का रखना अत्यावश्यक है कि इनका दुरुपयोग न हो। हम जानते हैं कि जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी अत्यावश्यक लगभग सभी चीज़ों का दुरुपयोग भी होता रहा है। खासकर वैज्ञानिक और चिकित्सकीय क्षेत्रा में हुए नये आविष्कारों का खूब दुरुपयोग हुआ है और लाभ की जगह नुकसान।

सुमीता पी.केशवा ने इस उपन्यास के ज़रिये सेरोगेसी या वैकल्पिक कोख (यहां ‘किराये की कोख‘ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपनी बांझ बेटी को संतान-सुख देने के लिए स्वयं उसकी मां ने अपनी कोख का सदुपयोग किया) के फायदों की ओर जहां संकेत किये हैं , वहीं इससे होने वाले नुकसानों का भी खुलासा किया है। ऐसी प्रक्रियाओं के दौरान नासमझी, कमसमझी, भ्रम और संदेह आदि के चलते आपसी रिश्तों में जो तनाव पैदा हो सकते हैं , यहां तक कि रिश्ते टूट भी सकते हैं, इन सब गलतफहमियों के प्रति सचेत भी किया है। आखिर सभी आविष्कारों, ज्ञान-विज्ञान, उपायों, पद्धतियों, सिद्धांतों और मूल्यों का उद्देश्य तो एक ही है-जीवन की सुरक्षा, जीवन के प्रति गहन आस्था, संबधों की मजबूती, रिश्तों में आपसी विश्वास, निराशाओं-हताशाओं से मुक्ति और आशाओं की पूर्ति, स्वपनों को साकार करना, प्रगति करना, विकास करना।

यहां ध्यान इस बात का खास यह रखना है कि दुरुपयोग की आशंका से कहीं नये आविष्कारों-उपायों-मूल्यों को खारिज न कर दिया जाये। ऐसा करना प्रतिगामी कदम होगा। ठीक इसी बिंदु पर साहित्य की जिम्मेदारी अहम हो जाती है। साहित्य के माध्यम से अज्ञान, कुसंस्कार, अंधविश्वास आदि दूर करके जनता में सकारात्मक रचनात्मक दृष्टिकोण के निर्माण से एक साथ कई समस्याओं के समाधान पाये जा सकते हैं। सुमीता जी का यह उपन्यास इसी दिशा में उठाया गया एक अच्छा कदम है।

टेस्ट-ट्यूब बेबी हो या किराये की कोख, हिंदी में इस विषय पर कम ही सही, लेकिन साहित्य की तीनों रचनात्मक विधाओं कहानी, उपन्यास, और कविता में काम हुआ है। सुमीता जी के इस काम को मैं इन अर्थों में विशिष्ट मानता हूं कि सेरोगेसी की अच्छाइयों-बुराइयों के साथ ही इसमें मानवीय संबधों-अंतर्संबंधों का सूक्ष्म विश्लेषण भी है, और अकेली स्त्री के संघर्ष की गाथा भी है। मां, बेटी, सास, सहेली, पत्नी, विधवा, परित्यकता-स्त्राी के इतने सारे रूप इस उपन्यास में बहुत गहराई से उभरे हैं।

मैं सुमीता जी को बधाई देता हूं कि अपनी पहली कृति के लिए उन्होंने इतने बोल्ड विषय का चुनाव किया और कथ्य के साथ न्याय किया। मैं सुमीता जी से समाज-बोध की ऐसी ही वैचारिक कृतियों की अपेक्षा भविष्य में भी रखता हूं । मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास को पाठकों का स्नेह मिलेगा

पुस्तक का मुद्रित (प्रिंटेड) मूल्य- रु 100
हिन्द-युग्म के पाठकों के लिए- रु 80
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Tuesday, July 21, 2009

आँखों में कल का सपना है - डॉ अमर ज्योति नदीम

अभिशप्त अकिंचन अमर ज्योति: डायरी के पन्ने 6 - शैलेश जैदी

रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे और आँखों में हलकी-हलकी सी नींद झांकने लगी थी। मेज़ से एक ग़ज़ल-संग्रह उठाकर बिस्तर पर लेट गया। कुछ पन्ने उल्टे थे कि एक शेर पर दृष्टि अटक गयी- कोई पूछे मेरा परिचय तो यही कह देना / एक अभिशप्त अकिंचन के सिवा कुछ भी नहीं शायर का अकिंचन और अभिशप्त होना और फिर भी अश'आर से अंतस में सहज ही प्रवेश कर जाने वाली एक दूधिया अमर ज्योति के एहसास से गुज़रना आर्श्चय जनक था। अकिंचन होना अभिशप्त होना है या अभिशप्त होने में अकिंचन होने का आभास है! कुछ भी हो, परिस्थितियाँ यदि किसी को अभिशप्त और अकिंचन बना दें तो उसके अंतर-चक्षु स्वतः ही खुल जाते हैं, अपनी पूरी ज्योति के साथ। और इस ज्योति में अमरत्व के स्वरों की धड़कनें पढ़ी जा सकती हैं।

शायर सदियों और लम्हों को माद्दीयत के फ़ीते से नहीं नापता। विध्वंस और रचनात्मकता से क्रमशः इनमें संकुचन और विस्तार आ जाता है। यह प्रक्रिया खुली आँखों से देखने से कहीं अधिक एहसास के राडार पर महसूस की जा सकती है। बात सामान्य सी है किन्तु उसका प्रभाव सामान्य नहीं है - सदियाँ उजाड़ने में तो दो पल नहीं लगे / लम्हे संवारने में ज़माना गुज़र गया यह विध्वंसात्मक प्रक्रिया जो सदयों को पल-दो-पल में उजाड़ कर रख देती है मंदिरों और मस्जिदों में शरण लेती है और सूली तथा कारावास के रास्ते खोल देती है। रोचक बात ये है कि अपने इस कृत्तित्व को यह खिरदमंदी का नाम देती है। बात भी ठीक है -जुनूँ का नाम खिरद पड़ गया खिरद का जुनूँ / जो चाहे आपका हुस्ने-करिश्मा-साज़ करे यहाँ भी शायर की यही समस्या है - इधर मंदिर उधर मस्जिद, इधर ज़िन्दाँ उधर सूली / खिरद-मंदों की बस्ती में जुनूँ वाले किधर जाएँ इन परिस्थितियों में अहले-जुनूँ की धार्मिक आस्थाएं यदि एक प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ी हो जाएँ तो आर्श्चय क्या है - यूँ तो इस देश में भगवान बहोत हैं साहब / फिर भी सब लोग परीशान बहोत हैं साहब परिस्थितियों का अंतर-मंथन करना एक जोखिम भरा कार्य है। किन्तु यह अकिंचन और अभिशप्त शायर, जिसकी आँखों में कल का सपना है, खतरों से कतराता नहीं, उनका सामना करता है। और एक सीधा सवाल दाग़ देता है - चीमटा, छापा-तिलक, तिरशूल, गांजे की चिलम / रहनुमा अब मुल्क के इस भेस में आयेंगे क्या? या फिर - थी खबर नोकीले करवाए हैं सब हिरनों ने सींग / भेड़िया मंदिर में जा पहोंचा, भजन गाने लगा
ग़ज़ल की शायरी बहुत आसान नहीं है। मिसरे बराबर कर लेना ही ग़ज़ल के शिल्प की परिधियों को समझने के लिए पर्याप्त नहीं। ग़ज़ल का फलक माशूक से बात-चीत की इब्तिदाई सरहदें बहुत पहले पार कर चुका है। आज उसका वैचारिक फलक उन सभी संस्कारों को अपने भीतर समेटे हुए है जो इस उत्तर आधुनिक युग की मांग को पूरा करते हैं। किन्तु ग़ज़ल का धीमे स्वरों में बजने वाला साज़ अपने प्रभाव में बादलों का गर्जन और दामिनी की चमक समेट लेने में पूरी तरह सक्षम है। हाँ शब्दों का मामूली सा कर्कश लहजा इसके शरीर पर ही नहीं इसकी आत्मा पर भी खरोचें बना देता है। मुझे यह देख कर अच्छा लगा कि है आँखों में कल का सपना है का रचनाकार इस तथ्य से परिचित भी है और इसके प्रति जागरूक भी।
अभी कल यानी चौदह जून की बात है, दिन के ग्यारह बजे थे मैं अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ने के लिए निकलने वाला था। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। हेलो, मैं अमर ज्योति बोल रहा हूँ। मुझे शैलेश जी से बात करनी है.
जी मैं शैलेश हूँ।
फिर मेरे और अपने ब्लॉग के सन्दर्भ। अलीगढ़ में ही आवास होने की चर्चा। किसी समय घर आने की पहल। ग़ज़ल संग्रह के छपने की सूचना।
शाम के साढे पांच बजे थे। दरवाज़े पर बेल हुयी। पहले एक भद्र महिला का कोमल स्वर -क्या 55 नंबर का मकान यही है? जी हाँ। क्या प्रोफेसर शैलेश जैदी ... जी मैं ही हूँ, अन्दर तशरीफ़ लायें। और फिर साथ में एक सज्जन का सहारे से आगे बढ़ना। आदाब मैं अमर ज्योति हूँ।
इस तरह मेरी पहली और अभी तक की आख़िरी मुलाक़ात डॉ. अमर ज्योति नदीम और उनकी पत्नी से हुयी। आँखों में कल का सपना है, ग़ज़ल संग्रह जिसका विमोचन होना अभी शेष है, साथ लाये थे। सब कुछ बहोत अच्छा लगा। ढेर सारी बातें हुयीं। माहौल कुछ गज़लमय सा हो गया, और फिर खुदा हाफिज़ की औपचारिकता।
अभी तक मैंने जितने भी हिंदी के ग़ज़ल-संग्रह पढ़े हैं, दो-एक अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो शायद ही कोई रचनाकार ऐसा हो जिसकी हर ग़ज़ल में दो-एक शेर मन को छू जाते हों। डॉ. अमर ज्योति नदीम भी ऐसे ही एक अपवाद हैं। मतले तो विशेष रूप से उनके बहुत सशक्त हैं। कुछ-एक उदाहरण देकर अपनी बात की पुष्टि करना चाहूँगा -नहीं कोई भी तेरे आस-पास क्यों आखिर / सड़क पे तनहा खड़ा है उदास क्यों आखिर, कभी हिंदुत्व पर संकट, कभी इस्लाम खतरे में / ये लगता है के जैसे हों सभी अक़्वाम खतरे में, पसीने के, धुँए के जंगलों में रास्ता खोजो / गये वो दिन के जुल्फों-गेसुओं में रास्ता खोजो, कह गया था मगर नहीं आया / वो कभी लौट कर नहीं आया, यही आँख थी के जनम-जनम से जो भीगने को तरस गयी / इसी खुश्क आँख की रेत से ये घटा कहाँ से बरस गयी, दरो-दरीचओ-दीवारो-सायबान था वो / जहां ये उम्र कटी, घर नहीं, मकान था वो, मुद्दतों पहले जहां छोड़ के बचपन आये / बारहा याद वो दालान वो आँगन आये इत्यादि।
अमर ज्योति नदीम की विशेषता ये है कि उनके कथ्य की पूँजी बहुत सीमित नहीं है। रिक्शे वाले से लेकर किसान और गोबर बीनती लड़कियों तक, पंक्ति में लगे हुए मज़दूरों के जमघट से लेकर बेरोजगारों की चहलक़दमी तक उनकी दृष्टि सभी की खैरियत पूछना चाहती है। कुछ अशआर देखिये -जेठ मॉस की दोपहरी में जब कर्फ्यू सा लग जाता है / अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले, कैसा पागल रिक्शे वाला / रिक्शे पर ही सो जाता है, ये कौन कट गया पटरी पे रेल की आकर / सुना है क़र्ज़ में डूबा कोई किसान था वो, गोबर भी बीनें तो सूखा क्या मिलता है / आँखें ही जलती हैं चूल्हा सुलगाने से, चले गाँव से बस में बैठे और शहर तक आये जी / चौराहे पर खड़े हैं शायद काम कोई मिल जाए जी, महकते गेसुओं के पेचोखम गिनने से क्या होगा / सड़क पर घुमते बेरोजगारों को गिना जाए,
ज़िन्दगी की चहारदीवारियों के इर्द-गिर्द जो कंटीला यथार्थ पसरा पड़ा है डॉ. अमर ज्योति नदीम कि नज़रें उससे अपना दमन नहीं बचातीं, बल्कि कुछ रुक कर, ठहर कर उसे अपने दामन में भर लेने का प्रयास करती हैं। शायर की यही अभिशप्त अकिंचन पीड़ा उसके दर्द में ज्योति का संचार करती है और यह ज्योति अमरत्व के पायदान पर खड़ी, आँखों में कल का सपना संजोती दिखाई देती है. ऐसे ही कुछ शेर उद्धृत कर के अपनी बात समाप्त करता हूँ-
पत्थर इतने आये लहू-लुहान हुयी / ज़ख्मी कोयल क्या कूके अमराई में, दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही / हमसे मिलने को मगर आया वहां कोई नहीं, कोई सुनता नहीं किसी की पुकार / लोग भगवान हो गये यारो, कमरे में आसमान के तारे समा गये / अच्छा हुआ के टूट के शीशा बिखर गया, उसे पडोसी बहोत नापसंद करते थे / वो रात में भी उजालों के गीत गाता था, वो खो गया तो मेरी बात कौन समझेगा / उसे तलाश करो मेरा हमज़बान था वो, सुना तो था के इसी राह से वो गुज़रे थे / तलाश करते रहे नक्शे-पा कहीं न मिला, बडकी हुयी सयानी उसकी शादी की क्या सोच रहे हो / दादी पूछेंगी और उनसे कतरायेंगे मेरे पापा, उधर फतवा कि खेले सानिया शलवार में टेनिस / ज़मीनों के लिए हैं इस तरफ श्रीराम खतरे में
मुझे यकीन है कि डॉ. अमर ज्योति नदीम भविष्य में और भी अच्छी ग़ज़लें कहेंगे. मेरी शुभ-कामनाएं उनके साथ हैं।

शायर: डॉ. अमर ज्योति नदीम,
ग़ज़ल-संग्रह: आँखों में कल का सपना है,
प्रकाशक: अयन प्रकाशन, महरौली, नयी दिल्ली,
मूल्य: एक सौ बीस रूपये


पुस्तक प्राप्ति हेतु अमर ज्योति से amarjyoti55@gmail.com पर ईमेल से संपर्क करें।

Monday, July 6, 2009

कविता-संग्रह : कलम और खयाल : सी आर राजश्री

समीक्षा: कुलवंत सिंह
काव्य संग्रह: कलम और खयाल
रचनाकार: सी आर राजश्री
प्रकाशक: सोनम प्रकाशन, कटक
मूल्य: रू 100/-
विमोचन की रिपोर्ट
Kavita Sangrah- Kalam Aur Khayalअपने पिताश्री को समर्पित सुश्री सी आर राजश्री के इस प्रथम काव्य संग्रह ’कलम और खयाल’ में ४५ कविताओं के खयालों को संजोकर कलमबद्ध किया गया है। इस काव्यसंग्रह की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह एक दक्षिण भारतीय कवयित्री का हिंदी में काव्य संग्रह है; जिसकी भूरि भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए। इस काव्य संग्रह के विमोचन का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। कोयंबतूर में डा. जी आर डी कालेज में हिंदी की प्राध्यापिका के रूप में विद्यार्थियों में ही नहीं अपितु सभी स्टाफ और सहकर्मियों में अति लोकप्रिय राजश्री की कविताओं के संग्रह में कई नायाब बातें हैं।

आइये बात करते हैं ’कलम और खयाल’ में अंतर्निहित कुछ भावों की। इनके अंदर कविता की भावना जन्म लेती है, जब वह बहुत छोटी थीं; माखन लाल चतुर्वेदी की कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ पढ़कर। पुष्प की अभिलाषा क्या है? वह किसी के शीश के मुकुट में नहीं जड़ना चाहता, वह किसी के हार में भी नहीं गुंधना चाहता, उसकी बस यही एक अभिलाषा है कि हे माली ! जिस पथ पर अपनी मातृभूमि के लिए लड़ने को वीर जा रहे हों, उस राह पर मुझे डाल देना। उनके चरणों की धूल पाकर ही मैं धन्य हो जाऊंगा।

कविताएं या यूं कहिये कि साहित्य संवेदनाएं जगाता है। हमें आदमी से इनसान बनात है। ज्ञान-विज्ञान बहुत पा लिया, सुख-सुविधाएं भी बहुत पा लीं, लेकिन अगर साहित्य न हो तो हम जानवर से इंसान कैसे बनेंगे! यह साहित्य ही है जो हमारे अंदर संवेदनाएं भरता है। किसी मनोवैज्ञानिक ने सच ही कहा है कि हर मनुष्य को प्रतिदिन १० मिनट साहित्य वाचन अवश्य करना चाहिए ताकि उसके अंदर की संवेदनाएं जिंदा रहें।

कलम और खयाल में प्राय: सभी विषयों पर कवियित्री ने अपने खयाल कलमबद्ध किये हैं- चाहे वह गांव हो, रेलगाड़ी हो, पिता हो, भाई हो, बहन हो, दीवाली हो, विद्यार्थी हो, महिला हो, आसमान, हिंदी, भ्रष्टाचार, नई सुबह, नया वर्ष हो; गांधी, इदिरागांधी, रामायण, भारत, कारगिल हो। अनेकानेक विषय पर उनके विचार पढ़ने को मिलते हैं। उनकी कुछ कविताओं की पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा।

धर्म कविता में-
’सारे धर्मों का एक ही सार,
अहिंसा, परोपकार, आपस में प्यार


दुलहन के बारे में देखिये उनके विचार-
”उमंग भरी आशा लिये,
प्यार का भंडार लिये,
पति का घर स्वर्ग बनाने


जिंदगी पर उनके शब्द-
’जीने का नाम है जिंदगी,
आगे बढ़ने का नाम है जिंदगी,
कभी न रुकने का नाम है जिंदगी’


कारगिल के युद्ध ने उन्हें कितना विचलित किया-
’घबराओ मत सिपाहियों, वतन तुम्हारे साथ है,
जीत कर लौट आना, तुम्हारा बेसब्री से इंतजार है’


शादी पर उनके भारतीय विचारों की परिपक्वता देखिये-
’दो अनजान दिलों का मिलन,
दो आत्माओं का संगम,
दो परिवारों का सस्नेह मिलाप,
सुख-दुख सहेंगे संग संग,
जब तक सांस है तन पर’


हिंदी भाषा-राजभाषा पर भी उन्होंने अपने स्वाभाविक उद्‍गार व्यक्त किये हैं और हिंदी को पूरे भारतवर्ष की राजभाषा के रुप में देखना चाहती हैं । भोर से लेकर रात तक आसमान के विभिन्न सलोने रूप देखकर कवयित्री को प्रेरणा मिलती है- काव्य सृजन की।

विद्यार्थियों के लिए कितना सुंदर संदेश है-
’हर मुमकिन ख्वाब को हकीकत में बदलना है,
तुम्हें देश को बुलंदी तक ले कर जाना है’


भारत की एकता पर उन्हें गर्व है। प्यार बिना जिंदगी अधूरी है-
’जिंदगी तुम्हारे बिन पिया है अधूरी,
लौट आओ तुम, मिटा दो यह दूरी’


जहां अशिक्षा है, अज्ञानता है, कई जगह आज भी बेटी को बोझ समझा जाता है। और इससे कवयित्री के दिल को ठेस पहुँचती है, -
’पता नही क्यों बेटी को बोझ समझा जाता है,
प्यार देने की जगह उसे दुत्कारा जाता है,
जन्मते ही गला उसका घोंटा जाता है,
इस नीच काम से पछतावा क्यों नही होता है?


अरे आज तो विज्ञान ने तकनीक दे दी है- अल्ट्रासोनोग्राफी । जन्म लेने के बाद क्यों अब तो जन्म लेने के पहले ही मार दिया जाता है - भ्रूण हत्या।

उनकी एक कविता में कहानी है- मुन्ना काला है, सब उसके दोस्त उसे चिढ़ाते हैं, कोई उससे दोस्ती नहीं करना चाहता। लेकिन जब काला गुब्बारा भी दूसरे गुब्बारों की तरह गैस भरने पर उड़ने लगता है तो मुन्ने के अंदर का अंधेरा धीरे धीरे छंटने लगता है। नये वर्ष में वह चाहती हैं कि-
’नफरत की दीवारों को तोड़ दो,
सारे गिले शिकवे छोड दो’।


शैशव से शमशान तक के सफर को आसान बनाने की कोशिश की है-
'शैशव से शमशान तक का सफर,
मुश्किल नही आसान है यह डगर,
समझ लो यारों!
जीवन एक बार ही जीना है,
कुछ नया कर दिखाना है,
मानवता को सबल बनाना है,
सत्य प्रेम पर चलना है,
दुनिया को मुट्ठी में करना है।’


छात्रों के साथ बिताये उनके पलों को देखिये-
’दुनिया की नियति तोड़ दो,
राह के कांटो को दूर करो,
अपना एक नया संसार रचो!
मैंने तुम्हें कभी डांटा,
कभी फटकारा,
पर जरा सोचो ऐसा क्यों किया?
तुम्हारी भलाई के सिवा और क्या कारण हो सकता है भला?’


अपने छात्रों को अपने बच्चों सा मानकर उन्हें जिंदगी की राह दिखाना, ज्ञान देने के अतिरिक्त पथ प्रदर्शक बनना, आज के इस व्यवसायिक युग में कोई कोई ही कर पाता है। ऐसी कवयित्री के भावों को नमन करते हुए पुन: उन्हें एक बार बधाई देते हुए, उनके पति डा. बी सुब्रमणी एवम बच्चों विशाख एवं विवेक को विशेष बधाई देते हुए- क्योंकि उनके सहयोग एवं प्रोत्साहन से ही तो वह यह मुकाम हासिल कर सकी हैं और साथ ही कालेज के संस्थापक एवं पदाधिकारी भी विशेष बधाई के पात्र हैं जिनके सहयोग एवं प्रोत्साहन से ही तो ऐसी उपलब्धियों का आधार बनता है।

कवि कुलवंत सिंह
२ डी, बद्रीनाथ, अणुशक्तिनगर
मुंबई - ४०००९४
०२२-२५५९५३७८
०९८१९१७३४७७

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Tuesday, March 31, 2009

कविता-संग्रह : डॉ॰ रमा द्विवेदी

स्त्री विमर्श की कविताएँ ’दे दो आकाश’—अशोक शुभदर्शी

Kavita Sangrah- De Do Aakash’दे दो आकाश’ काव्य संग्रह की कविताएँ देवनदी की जलधाराओं जैसी कल-कल करती हुई बहती हैं। इस जलधारा में कोई डुबकी लगाकर तो देखे वह पवित्र होकर ही नहीं निकलेगा बल्कि एक नई ऊर्जा और नई चेतना लेकर भी निकलेगा। लगता है पुस्तक की कवयित्री पहले स्व्यं खूब इस जलधारा में गहराई तक डूबी, बार-बार डूबी, फिर इस धारा को सर्वसुलभ बनाने में सफल हुई। कविताओं के शब्दों में कवयित्री के मन के भाव
उतर गए हैं, अकसर यह नहीं होता। अकसर यह हो जाता है कि कवि कहना कुछ चाहता है और उसके शब्द कुछ और कहते हैं। संग्रह की कविताएँ पढ़कर ऐसा लगता है कि कवयित्री हड़बड़ी में कभी नहीं रही है। कवयित्री ने शब्द-शब्द तौला है, अपने भाव को प्रकट करने लायक शब्दों की तलाश की है, फिर अपनी कविताओं में उन्हें स्थान दिया है। आजकल कवि जल्दी से जल्दी अपनी कविताएँ लेकर लोगों के पास आना चाहता है और आता
है। इस हड़बड़ी में उसकी कविताएँ प्रौढ़ नहीं रहतीं। डॉ. रमा द्विवेदी की कविताएँ उनके अंतर्मन की पाकशाला में खूब पकी हैं।

काव्य-संग्रह में युगीन समस्याएँ उजागर हुई हैं। नारी की स्थिति पर कवयित्री का ध्यान अत्याधिक गया है। नारी चेतना को जरूरी ठहराती हुई कवयित्री नारी को उसी चेतना में ऊपर उठने का संदेश देती हैं – कोमलता को कमजोर समझता यह है तेरी नादानी/ आती है बाढ़ नदी में जब, जग को करती है पानी-पानी। नारीत्व कमजोरी नहीं है। नारीत्व शक्ति का सच्चा स्रोत है।

भारतीय संस्कृति में ही यह ऊर्जा विद्यामान है। इस ऊर्जा की पहचान कवयित्री को पूरी तरह हुई है। तभी तो कवयित्री कहती है – तू अपनी पहचान को विवशता का रूप न दे/ वर्ना नर भेड़िए तुझे समूचा ही निगल जाएँगे। नारी जागरण की समस्या पूर्व से ही भयावह और गंभीर है। आज की नारी कुछ-कुछ जागी भी है। उसने जगह-जगह अपनी पहचान बनाई है, लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं होगा। नारी को पूर्णतः जागने
की जरूरत है। नारी घर के दीपक की तरह है। नारी जागेगी तो घर रोशन होगा। नारी शिक्षा का अनुपात अभी भी कम है फिर कवयित्री की इच्छा नारी को सिर्फ साक्षर देखने की नहीं है वरन्‍ वे चाहती हैं कि आज की नारी पूर्ण सबल हो जाए। वह चाहती है कि आज की नारी पत्नी जरूर बने किंतु आश्रिता न बने –

न रहो कभी किसी की आश्रिता,
खुद बनकर स्वावलंबी बनो हर्षिता
हमें खुद अपना संबल बनना है
हमें परजीवी लता नहीं बनना है॥


नारी को इतना साफ संदेश अन्यत्र दुर्लभ है। इस कार्य में कवयित्री इसलिए सफल हुई है क्योंकि वह स्वयं स्त्री है और स्त्री की समस्याओं को पुरुष रचनाकार की तुलना में ज्यादा समझती है।

वह कामना करती है कि प्रत्येक नारी अपने नारीत्व को शीर्ष तक पहुँचावे। उसे एक आकाश मिल जाए। काव्य-संग्रह का शीर्षक भी यही संदेश देता है। शीर्षक में नारीत्व के शिखर को छूने की अपेक्षा है। शीर्षक से कवयित्री की दूसरी अपेक्षा झलकती है कि कवयित्री अखंड शून्यता को प्राप्त करना चाहती है। अखंड शून्यता की प्राप्ति की प्रक्रिया स्त्री शक्‍ति का चरम स्थिति तक पहुँचना है। स्त्री
शक्‍ति वेदना सहने की शक्‍ति है। अपनी ही आत्मा की खॊज में मन की निरंतर चलने वाली प्रार्थना है। कवयित्री शायद आध्यात्मिक ऊँचाई प्राप्त करने के लिए व्यग्र है। काव्य संग्रह में संकलित दे दो आकाश कविता में कवयित्री कहती है –

राज मुबारक तुमको, ताज़ मुबारक तुमको,
बस चाहते हैं इतना, दे दो आकाश हमको।


वह प्रेम का अर्थ समझाती हुई कहती है –

प्रेम दिल की पुकार है
हृदय का विस्तार है।


कुल मिलाकर इनकी कविताओं में एक बात रेखांकित करने लायक है कि नारी को नारीत्व पर ही भरोसा करना चाहिए। उसी में ताकत है –

पुरुषों की पशुता को पराजित कर
स्वयं की महत्ता उद्‍घाटित कर।


यह विशिष्टता इनकी कविताओं में उभरी है इसलिए कवयित्री विशिष्ट हो गई है। नारी जागर्ण में कुछ नाम उदाहरण की तरह हैं जिनकी चर्चा वह करती है। वह दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सीता, सावित्री की तरह जगने के लिए कहती है तो आधुनिक युग में सोनिया गाँधी में वे त्याग के महान गुण देखती है।

जहाँ आज की कविताएँ बुद्धिविलास का एक अंग हो गई हैं, शिल्प और बिंब ढूँढने के प्रयास में वह अंधेरी गुफा में प्रवेश हुई दीखती है। इस फेर में ये कविताएँ आम लोगों से कटती जा रही हैं, वहीं रमा द्विवेदी की कविताएँ सहज और सरल हैं। वे बातें साफ-साफ रखती हैं।

कवि निर्मल मिलिंद ने संग्रह के स्वर को स्पष्ट करते हुए लिखा है – “नारी चेतना और स्त्री का स्वाभीमान दे दो आकाश का मूल स्वर है, हालांकि पर्यावरण की चिंता से लेकर राष्ट्ररक्षा में तैनात सैनिकों के बलिदान के प्रति असीम निष्ठा तक कवयित्री का रचना संसार फैला हुआ है, तथापि मुझे लगता है कि प्रेम कवयित्री का सहज स्वभाव है और विद्रोह उसकी अस्मिता की जरूरत।”

प्रो. टी. मोहन सिंह के शब्दों में – “इस काव्य में कवयित्री की काव्य चेतना के दो तट दिखाई देते हैं। प्रथम तट नारी की मुक्ति चेतना से संपन्न है तो दूसरा तट लोकबोध संबंधी है।”

आचार्य शिवचंद्र शर्मा ने पुस्तक की मूलधारा को उद्‍घाटित करते हुए कहा है – “जीवन का बहुरंगी चित्रण होते हुए भी डॉ. द्विवेदी जी के गीतों में स्त्री वेदना विशेष रूप से मुखरित है।”

संग्रह मेम १०० कविताएँ संग्रहीत हैं। कविता, मुक्तक एवं गीत के संगम की छ्टा निराली है। छ्पाई साफ सुथरी और आवरण आकर्षक है।

साभार : `भाषा’-जुलाई-अगस्त,२००६,

प्रकाशकीय कार्यालय: केंद्रीय हिंदी निदेशालय माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग,
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार


पुस्तक का मुद्रित (प्रिंटेड) मूल्य- रु 150
हिन्द-युग्म के पाठकों के लिए- रु 120
यदि आप पंजीकृत डाक से पुस्तक प्राप्त करना चाहें तो- रु 120 + रु 20= रु 140
पुस्तक खरीदने के लिए रमा द्विवेदी से ramadwivedi53@gmail.com पर संपर्क करें।


कवयित्री का परिचय

ग़ज़ल-संग्रह- दुनिया भर के ग़म थे

अभी तक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से श्याम सखा‘श्याम’की गज़लें देखीं थी। उन सरीखे बहुआयामी साहित्यकार के गज़ल संग्रह की प्रतीक्षा पाठकों और गज़लकारों को समानरूप से थी। इस पहले गज़ल संग्रह के साथ यह प्रतीक्षा खत्म हुई। प्रसन्नता का विषय है कि प्रस्तुत संग्रह की गजलें पूरी तरह हिन्दी गजलें है। एक और खास बात डॉ० श्याम ने अपने संग्रह पर किसी भी विद्वान से भूमिका न लिखवाकर-इसे सीधे पाठकों की अदालत में निर्णय हेतु सौंप दिया है। इससे पाठक एक अकारण बोझ से बच गया है और वह बिना किसी बाहरी बौधिक दबाव के ग़ज़लो का रसस्वादन कर सकता है। इस संग्रह के माध्यम से आपने हिन्दी में गजलकारों को नई दिशा देने का सफल प्रयास किया है। यद्यपि हिन्दी के छंदों और उर्दू की बहरों में कोई अन्तर नहीं है किन्तु व्याकरण में पर्याप्त भिन्नता दिखाई पड़ती है। केवल भाषा ही नहीं व्याकरण भी उसके भाषायी स्वरूप को निर्धारित करता है। अधिकांश गजलें छोटे छंदों में निर्दोष छांदसिकता की सुन्दर उदाहरण हैं। जिनमें भरपूर रवानी है। गजल की मुख्य विशेषताओं में उसकी संवेदनीय कहन तथा शेर की दोनों पंक्तियों का पारस्परिक जुड़ाव एवं संतुलन भी महत्त्वपूर्ण घटक है और इस संदर्भ में भी ये गजलें पुरमुकम्मल हैं। जिनमें मतला मक्ता और रदीफ काफ़िया व कलेवर भी सुनियोजित हैं। प्राय: प्रत्येक गजल के मक्ता में उपनाम का सुन्दर उपयोग सार्थक रूप से किया गया है जिससे वह भर्ती का नहीं प्रतीत होता। उर्दू गजलों की परम्परा के अनुसार ही प्रत्येक शेर का विषय पृथक-पृथक है और छांदसिकता में रदीफ काफिया से संयोजित है जिसकी मार्मिक एवं तीक्ष्ण कहन पाठक के अंतर्मन में उतरने तथा वांछित प्रभाव छोड़ने में सफल है इन गजलों में समकालीन विषमता, विसंगति, भाषक परिवेश, शोषण, उत्पीड़न भ्रष्ट व्यवस्था, कुण्ठा, कमजोर वर्ग की समस्याएं आदि के साथ ही लोक कथ्यों की उपस्थिति नवगीत का समरण कराती है। यदि इसे नवगीतात्मक गजल संग्रह कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। उनका हर शेर वर्तमान परिस्थितियों पर कुठाराघात करता है।

है कैसा दस्तूर शहर का
हर कोई नफरत लिखता है।
बादल का खत पढ़कर देखो
छप्पर की हालत लिखता है।
अखबारों से डर लगता है
हर पन्ना दहशत लिखता है।


ये शेर गजलकार के मन की पीड़ा व्यक्त करने के साथ ही सटीक व्यंग्य भी करते हैं और इनकी मार्मिक व्यंजना मानव मूल्यों के ह्रास पर पाठक को सोचने पर विवश करती है। संवेदनाओं की उपस्थिति युग बोध को भलीभांति प्रस्तुत करती है। अनूठी उक्तियों और नूतन बिंब योजना जहां गजलों को ताजगी बख्शती है वहीं शिल्प भी मन को मुग्ध करता है। गजलों में संकेतों तथा ध्वनियों का भी प्रयोग उन्हें नई ऊँचाई देता है।
तुमको देखा सपने में

मन ढोलक की थाप हुआ
मेरे बस में था क्या कुछ
सब कुछ अपने आप हुआ
पैसा पैसा पैसा ही
सम्बन्धों का माप हुआ


गजलों में छोटी बहर भावना सफल शब्द योजना शेरियत और व्यंजना से युक्त शेरों में केवल युग बोध की अभिव्यक्ति ही नहीं, शृंगार तत्त्व का भी अभाव नहीं है। इसकी रंगिमा, भंगिमा गीतों से कम नहीं है न्यूनतम शब्दों में बड़ी सहजता से उनकी अभिव्यक्ति विषमयकारी है। उनके शृंगार की शेरों में संयोग और वियोग दोनों की झलक दिखाई पड़ती है।

संग तेरे वक्त भी-ताक धिना-धिन गया / ये तुम्हारे मेरे बीच ईंट कौन चिन गया
जीवन का उपहार मोहब्बत / खुशियों का आधार मोहब्बत
दिल से दिल जब मिल जाते हैं / हो जाती साकार मोहब्बत
उम्र भला कब आड़े आती/ हो जाए जब यार मोहब्बत
जिन्दगी भी गम न था / हादसा ये कम न था
मौसम फूलों के दामन पर/ खुशबू वाले रात लिखता है


इसके अतिरिक्त प्रत्येक गजल में कुछ शेर ऐसे है जो जबान पर चढ़ जाते हैं और बोलते हुए प्रतीत होते हैं।

जब भी मैं मुस्काने बैठा / गम आकर सिरहाने बैठा
बापू याद बहुत तुम आए/ जब सुत को धमकाने बैठा
मत पूछो तुम हाल बिरादर / जीवन है जंजाल बिरादर
अपने ही हो जाए पराए / वक्त चले जब चाल बिरादर
फूल चढ़ाते है सब उस पर, खुद को क्या है, बस पत्थर है
जिन्दगी का सफर देखिये / थामकर दिल मगर देखिये


उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि गजल संगह ‘दुनियां भर के गम थे’ निश्चित रूप से हिन्दी गजल के संग्रहों में अपना महत्त्व स्थापित करने में सक्षम है जिसका पाठक हृदय से स्वागत करेंगे।

श्याम सखा ’श्याम' की गजलों का आनन्द आप हिन्द-युग्म पर लेते रहे हैं और वे आपके पसन्दीदा गज़लकार हैं, उनका गज़ल संग्रह ‘दुनिया भर के गम थे-और अकेले हम थे'-हिन्द युग्म पाठकों को आधे मूल्य यानी केवल ५० रुपये में हम आपको उपलब्ध करवा रहे हैं।

पंजीकृत डाक व्यय-२० रू यानी कुल ७० रु में

कुल पृष्ठ संख्या= १०४,

पुस्तक प्राप्ति हेतु-रकम सीधे खाता नं-016801504551-ICICIC Bank-Vidur Moudgil के खाते में Transfer करें या M.O [धनादेश] से प्रमोद पंडित-सचिव ,प्रयास ट्रस्ट 12-विकास नगर, रोहतक 124001 को भेजें।