समाजबोध और दायित्व का ईमानदार निर्वाह- आलोक भट्टाचार्य
प्रगति और विकास के माध्यम से स्थापित होने वाली जीवन-शैली ही दरअसल आधुनिकता है, जिसके प्रभाव से समय-समय पर मानवीय जीवन-मूल्यों में कभी थोड़े- बहुत तो कभी आमूल परिवर्तन आते हैं- सामाजिक स्तर पर भी, और व्यक्तिगत स्तर पर भी। चूंकि ऐसे परिवर्तन हमेशा ही नयी पीढ़ी का हाथ पकड़कर समाज में प्रवेश करते हैं, अक्सर बुज़र्ग पीढ़ी की स्वीकृति इन्हें आसानी से नहीं मिलती। वे इन्हें अनैतिक कह देते हैं। असामाजिक और पतनोन्मुख करार देते हैं। सचाई यह है कि ज्ञान-विज्ञान के नये-नये आविष्कारों की वजह से वजूद में आये मूल्य पतित नहीं हो सकते। अमानवीय या असामाजिक या अनैतिक नहीं हो सकते । बल्कि इन्हीं मूल्यों को अपनाकर व्यक्ति प्रगति और विकास का वास्तविक लाभ ले सकता है। जो नहीं अपनाता, वह पिछड़ जाता है।
किसी भी नयी चीज़ को खासकर जीवन- मूल्यों और जीवन- शैली को स्वीकार करने में समाज कुछ वक्त तो लेता ही है। ऐसे में साहित्य के माध्यम से उन्हें सहज ही स्वीकार्य बनाया जा सकता है। मान्यता देने, अपनाने में जितना ज़्यादा समय लगेगा, विकास-गति उतनी ही धीमी पड़ेगी। अतः ऐसे प्रसंगों में साहित्य का अपना निजी दायित्व भी होता है। इसी दायित्व का निर्वाह किया है प्रस्तुत उपन्यास की लेखिका सुमीता पी.केशवा ने। मै उन्हें विशेष श्रेय इसलिए भी देना चाहता हूं कि इतने गूढ़ दायित्व का निर्वाह उन्होंने अपनी पहली ही कृति के माध्यम से किया है।
भारतीय समाज में आज भी ‘टेस्ट-ट्यूब बेबी‘ और ‘सरोगेट मदर‘ जैसे अत्यंत उपयोगी उपायों को सहज स्वीकृति नहीं मिल पायी, जब कि अब तो ये बहुत नये भी नहीं रहे। जिस देश में हज़ारों वर्ष पहले निःसंतान दंपतियों की संतान-प्राप्ति के लिए ‘ नियोग‘ पद्धति का समाजिक प्रचलन रहा हो, उस समाज में ‘टेस्ट-ट्यूब बेबी‘ और ‘सरोगेट मदर‘ जैसी पद्धतियों के प्रति आज भी एक प्रकार का नकारात्मक भाव पाया जाना चकित करता है। रामायण, महाभारत , उपनिषद- सभी जगहों में नियोग को मान्यता है। भारतीय समाज में आज भी तलाक और पुर्निर्ववाह को सहजता से नहीं लिया जाता, जबकि हमारे ग्रंथों में बहुविवाह, पुनर्विवाह, विधवा-विवाह तो हैं ही, कुमारी माता भी हैं।
ज्ञान-विज्ञान के नये आविष्कारों से वजूद में आये नये उपाय-पद्धति और मूल्य समाज के लिए निश्चित तौर पर अत्यंत ही लाभकारी हैं। इसमें शक या बहस की कोई गुंजाइश नहीं। बस, ध्यान इस बात का रखना अत्यावश्यक है कि इनका दुरुपयोग न हो। हम जानते हैं कि जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी अत्यावश्यक लगभग सभी चीज़ों का दुरुपयोग भी होता रहा है। खासकर वैज्ञानिक और चिकित्सकीय क्षेत्रा में हुए नये आविष्कारों का खूब दुरुपयोग हुआ है और लाभ की जगह नुकसान।
सुमीता पी.केशवा ने इस उपन्यास के ज़रिये सेरोगेसी या वैकल्पिक कोख (यहां ‘किराये की कोख‘ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपनी बांझ बेटी को संतान-सुख देने के लिए स्वयं उसकी मां ने अपनी कोख का सदुपयोग किया) के फायदों की ओर जहां संकेत किये हैं , वहीं इससे होने वाले नुकसानों का भी खुलासा किया है। ऐसी प्रक्रियाओं के दौरान नासमझी, कमसमझी, भ्रम और संदेह आदि के चलते आपसी रिश्तों में जो तनाव पैदा हो सकते हैं , यहां तक कि रिश्ते टूट भी सकते हैं, इन सब गलतफहमियों के प्रति सचेत भी किया है। आखिर सभी आविष्कारों, ज्ञान-विज्ञान, उपायों, पद्धतियों, सिद्धांतों और मूल्यों का उद्देश्य तो एक ही है-जीवन की सुरक्षा, जीवन के प्रति गहन आस्था, संबधों की मजबूती, रिश्तों में आपसी विश्वास, निराशाओं-हताशाओं से मुक्ति और आशाओं की पूर्ति, स्वपनों को साकार करना, प्रगति करना, विकास करना।
यहां ध्यान इस बात का खास यह रखना है कि दुरुपयोग की आशंका से कहीं नये आविष्कारों-उपायों-मूल्यों को खारिज न कर दिया जाये। ऐसा करना प्रतिगामी कदम होगा। ठीक इसी बिंदु पर साहित्य की जिम्मेदारी अहम हो जाती है। साहित्य के माध्यम से अज्ञान, कुसंस्कार, अंधविश्वास आदि दूर करके जनता में सकारात्मक रचनात्मक दृष्टिकोण के निर्माण से एक साथ कई समस्याओं के समाधान पाये जा सकते हैं। सुमीता जी का यह उपन्यास इसी दिशा में उठाया गया एक अच्छा कदम है।
टेस्ट-ट्यूब बेबी हो या किराये की कोख, हिंदी में इस विषय पर कम ही सही, लेकिन साहित्य की तीनों रचनात्मक विधाओं कहानी, उपन्यास, और कविता में काम हुआ है। सुमीता जी के इस काम को मैं इन अर्थों में विशिष्ट मानता हूं कि सेरोगेसी की अच्छाइयों-बुराइयों के साथ ही इसमें मानवीय संबधों-अंतर्संबंधों का सूक्ष्म विश्लेषण भी है, और अकेली स्त्री के संघर्ष की गाथा भी है। मां, बेटी, सास, सहेली, पत्नी, विधवा, परित्यकता-स्त्राी के इतने सारे रूप इस उपन्यास में बहुत गहराई से उभरे हैं।
मैं सुमीता जी को बधाई देता हूं कि अपनी पहली कृति के लिए उन्होंने इतने बोल्ड विषय का चुनाव किया और कथ्य के साथ न्याय किया। मैं सुमीता जी से समाज-बोध की ऐसी ही वैचारिक कृतियों की अपेक्षा भविष्य में भी रखता हूं । मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास को पाठकों का स्नेह मिलेगा
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