अभिशप्त अकिंचन अमर ज्योति: डायरी के पन्ने 6 - शैलेश जैदी
रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे और आँखों में हलकी-हलकी सी नींद झांकने लगी थी। मेज़ से एक ग़ज़ल-संग्रह उठाकर बिस्तर पर लेट गया। कुछ पन्ने उल्टे थे कि एक शेर पर दृष्टि अटक गयी- कोई पूछे मेरा परिचय तो यही कह देना / एक अभिशप्त अकिंचन के सिवा कुछ भी नहीं। शायर का अकिंचन और अभिशप्त होना और फिर भी अश'आर से अंतस में सहज ही प्रवेश कर जाने वाली एक दूधिया अमर ज्योति के एहसास से गुज़रना आर्श्चय जनक था। अकिंचन होना अभिशप्त होना है या अभिशप्त होने में अकिंचन होने का आभास है! कुछ भी हो, परिस्थितियाँ यदि किसी को अभिशप्त और अकिंचन बना दें तो उसके अंतर-चक्षु स्वतः ही खुल जाते हैं, अपनी पूरी ज्योति के साथ। और इस ज्योति में अमरत्व के स्वरों की धड़कनें पढ़ी जा सकती हैं।
शायर सदियों और लम्हों को माद्दीयत के फ़ीते से नहीं नापता। विध्वंस और रचनात्मकता से क्रमशः इनमें संकुचन और विस्तार आ जाता है। यह प्रक्रिया खुली आँखों से देखने से कहीं अधिक एहसास के राडार पर महसूस की जा सकती है। बात सामान्य सी है किन्तु उसका प्रभाव सामान्य नहीं है - सदियाँ उजाड़ने में तो दो पल नहीं लगे / लम्हे संवारने में ज़माना गुज़र गया। यह विध्वंसात्मक प्रक्रिया जो सदयों को पल-दो-पल में उजाड़ कर रख देती है मंदिरों और मस्जिदों में शरण लेती है और सूली तथा कारावास के रास्ते खोल देती है। रोचक बात ये है कि अपने इस कृत्तित्व को यह खिरदमंदी का नाम देती है। बात भी ठीक है -जुनूँ का नाम खिरद पड़ गया खिरद का जुनूँ / जो चाहे आपका हुस्ने-करिश्मा-साज़ करे। यहाँ भी शायर की यही समस्या है - इधर मंदिर उधर मस्जिद, इधर ज़िन्दाँ उधर सूली / खिरद-मंदों की बस्ती में जुनूँ वाले किधर जाएँ। इन परिस्थितियों में अहले-जुनूँ की धार्मिक आस्थाएं यदि एक प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ी हो जाएँ तो आर्श्चय क्या है - यूँ तो इस देश में भगवान बहोत हैं साहब / फिर भी सब लोग परीशान बहोत हैं साहब। परिस्थितियों का अंतर-मंथन करना एक जोखिम भरा कार्य है। किन्तु यह अकिंचन और अभिशप्त शायर, जिसकी आँखों में कल का सपना है, खतरों से कतराता नहीं, उनका सामना करता है। और एक सीधा सवाल दाग़ देता है - चीमटा, छापा-तिलक, तिरशूल, गांजे की चिलम / रहनुमा अब मुल्क के इस भेस में आयेंगे क्या? या फिर - थी खबर नोकीले करवाए हैं सब हिरनों ने सींग / भेड़िया मंदिर में जा पहोंचा, भजन गाने लगा।
ग़ज़ल की शायरी बहुत आसान नहीं है। मिसरे बराबर कर लेना ही ग़ज़ल के शिल्प की परिधियों को समझने के लिए पर्याप्त नहीं। ग़ज़ल का फलक माशूक से बात-चीत की इब्तिदाई सरहदें बहुत पहले पार कर चुका है। आज उसका वैचारिक फलक उन सभी संस्कारों को अपने भीतर समेटे हुए है जो इस उत्तर आधुनिक युग की मांग को पूरा करते हैं। किन्तु ग़ज़ल का धीमे स्वरों में बजने वाला साज़ अपने प्रभाव में बादलों का गर्जन और दामिनी की चमक समेट लेने में पूरी तरह सक्षम है। हाँ शब्दों का मामूली सा कर्कश लहजा इसके शरीर पर ही नहीं इसकी आत्मा पर भी खरोचें बना देता है। मुझे यह देख कर अच्छा लगा कि है आँखों में कल का सपना है का रचनाकार इस तथ्य से परिचित भी है और इसके प्रति जागरूक भी।
अभी कल यानी चौदह जून की बात है, दिन के ग्यारह बजे थे मैं अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ने के लिए निकलने वाला था। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। हेलो, मैं अमर ज्योति बोल रहा हूँ। मुझे शैलेश जी से बात करनी है.
जी मैं शैलेश हूँ।
फिर मेरे और अपने ब्लॉग के सन्दर्भ। अलीगढ़ में ही आवास होने की चर्चा। किसी समय घर आने की पहल। ग़ज़ल संग्रह के छपने की सूचना।
शाम के साढे पांच बजे थे। दरवाज़े पर बेल हुयी। पहले एक भद्र महिला का कोमल स्वर -क्या 55 नंबर का मकान यही है? जी हाँ। क्या प्रोफेसर शैलेश जैदी ... जी मैं ही हूँ, अन्दर तशरीफ़ लायें। और फिर साथ में एक सज्जन का सहारे से आगे बढ़ना। आदाब मैं अमर ज्योति हूँ।
इस तरह मेरी पहली और अभी तक की आख़िरी मुलाक़ात डॉ. अमर ज्योति नदीम और उनकी पत्नी से हुयी। आँखों में कल का सपना है, ग़ज़ल संग्रह जिसका विमोचन होना अभी शेष है, साथ लाये थे। सब कुछ बहोत अच्छा लगा। ढेर सारी बातें हुयीं। माहौल कुछ गज़लमय सा हो गया, और फिर खुदा हाफिज़ की औपचारिकता।
अभी तक मैंने जितने भी हिंदी के ग़ज़ल-संग्रह पढ़े हैं, दो-एक अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो शायद ही कोई रचनाकार ऐसा हो जिसकी हर ग़ज़ल में दो-एक शेर मन को छू जाते हों। डॉ. अमर ज्योति नदीम भी ऐसे ही एक अपवाद हैं। मतले तो विशेष रूप से उनके बहुत सशक्त हैं। कुछ-एक उदाहरण देकर अपनी बात की पुष्टि करना चाहूँगा -नहीं कोई भी तेरे आस-पास क्यों आखिर / सड़क पे तनहा खड़ा है उदास क्यों आखिर, कभी हिंदुत्व पर संकट, कभी इस्लाम खतरे में / ये लगता है के जैसे हों सभी अक़्वाम खतरे में, पसीने के, धुँए के जंगलों में रास्ता खोजो / गये वो दिन के जुल्फों-गेसुओं में रास्ता खोजो, कह गया था मगर नहीं आया / वो कभी लौट कर नहीं आया, यही आँख थी के जनम-जनम से जो भीगने को तरस गयी / इसी खुश्क आँख की रेत से ये घटा कहाँ से बरस गयी, दरो-दरीचओ-दीवारो-सायबान था वो / जहां ये उम्र कटी, घर नहीं, मकान था वो, मुद्दतों पहले जहां छोड़ के बचपन आये / बारहा याद वो दालान वो आँगन आये इत्यादि।
अमर ज्योति नदीम की विशेषता ये है कि उनके कथ्य की पूँजी बहुत सीमित नहीं है। रिक्शे वाले से लेकर किसान और गोबर बीनती लड़कियों तक, पंक्ति में लगे हुए मज़दूरों के जमघट से लेकर बेरोजगारों की चहलक़दमी तक उनकी दृष्टि सभी की खैरियत पूछना चाहती है। कुछ अशआर देखिये -जेठ मॉस की दोपहरी में जब कर्फ्यू सा लग जाता है / अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले, कैसा पागल रिक्शे वाला / रिक्शे पर ही सो जाता है, ये कौन कट गया पटरी पे रेल की आकर / सुना है क़र्ज़ में डूबा कोई किसान था वो, गोबर भी बीनें तो सूखा क्या मिलता है / आँखें ही जलती हैं चूल्हा सुलगाने से, चले गाँव से बस में बैठे और शहर तक आये जी / चौराहे पर खड़े हैं शायद काम कोई मिल जाए जी, महकते गेसुओं के पेचोखम गिनने से क्या होगा / सड़क पर घुमते बेरोजगारों को गिना जाए,
ज़िन्दगी की चहारदीवारियों के इर्द-गिर्द जो कंटीला यथार्थ पसरा पड़ा है डॉ. अमर ज्योति नदीम कि नज़रें उससे अपना दमन नहीं बचातीं, बल्कि कुछ रुक कर, ठहर कर उसे अपने दामन में भर लेने का प्रयास करती हैं। शायर की यही अभिशप्त अकिंचन पीड़ा उसके दर्द में ज्योति का संचार करती है और यह ज्योति अमरत्व के पायदान पर खड़ी, आँखों में कल का सपना संजोती दिखाई देती है. ऐसे ही कुछ शेर उद्धृत कर के अपनी बात समाप्त करता हूँ-
पत्थर इतने आये लहू-लुहान हुयी / ज़ख्मी कोयल क्या कूके अमराई में, दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही / हमसे मिलने को मगर आया वहां कोई नहीं, कोई सुनता नहीं किसी की पुकार / लोग भगवान हो गये यारो, कमरे में आसमान के तारे समा गये / अच्छा हुआ के टूट के शीशा बिखर गया, उसे पडोसी बहोत नापसंद करते थे / वो रात में भी उजालों के गीत गाता था, वो खो गया तो मेरी बात कौन समझेगा / उसे तलाश करो मेरा हमज़बान था वो, सुना तो था के इसी राह से वो गुज़रे थे / तलाश करते रहे नक्शे-पा कहीं न मिला, बडकी हुयी सयानी उसकी शादी की क्या सोच रहे हो / दादी पूछेंगी और उनसे कतरायेंगे मेरे पापा, उधर फतवा कि खेले सानिया शलवार में टेनिस / ज़मीनों के लिए हैं इस तरफ श्रीराम खतरे में।
मुझे यकीन है कि डॉ. अमर ज्योति नदीम भविष्य में और भी अच्छी ग़ज़लें कहेंगे. मेरी शुभ-कामनाएं उनके साथ हैं।
शायर: डॉ. अमर ज्योति नदीम,
ग़ज़ल-संग्रह: आँखों में कल का सपना है,
प्रकाशक: अयन प्रकाशन, महरौली, नयी दिल्ली,
मूल्य: एक सौ बीस रूपये
पुस्तक प्राप्ति हेतु अमर ज्योति से amarjyoti55@gmail.com पर ईमेल से संपर्क करें।